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________________ ( २५७ ) तस्सण भगवंतस्स अनुत्तरेणं णाणेणं अणुत्तरेणं दंसणेणं अणुत्तरेणं परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स अनंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडणे केवल वर णाण दंसणे समुप्पज्जेज्जा । दसासु० द १० उस भगवान् को अनुत्तर ज्ञान से, अनुत्तर दर्शन से और अनुत्तर शांति मार्ग से अपनी आत्मा की भावना करते हुए अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, संपूर्ण, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान और केवल दर्शन की उत्पत्ति हो जाती है । तणं से भगवं अरहा भवति, जिणे, केवली, सव्वण्णू, सव्वदसी, सदेवमासुराए जाव बहूई वासाइ केवली परियागं पाउणइपाउणइत्ता अप्पणो आउसेसं आभोपइ आभोएइत्ता भोत्तं पञ्चक्खाएइ२त्ता बडूइ' भत्ताइ अणसणाद्द' छेदेइरत्ता तओ पच्छा चरमेहिं ऊसास - नीसासेहि सिज्झति जावसव्वदुक्खा णमंतं करेति । तत्पश्चात् वह भगवान्, अर्हन, जिन, केवली, सर्वज्ञ - सर्वदर्शी होता है । देव, मनुष्य और असुरों की परिषद् में उपदेश आदि करता हैं । दसा सु० द १० फिर वह इस प्रकार बहुत वर्षों तक केवली - पर्याय का पालन करके अपनी शेष आयु को अबलोकन कर भक्त का प्रत्याख्यान करता है और प्रत्याख्यान करके बहुत भक्तों के अनशन ब्रत का छेदन कर अन्तिम उच्छवास और निश्वासों द्वारा सिद्ध होता है और सब दुःखों का अंत कर देता है । एवं खलु समणाउसो ! तरुल अणिदाणस्स इमेयारूवे कल्लाण- फलविवागे जं तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्व- दुक्खाणं अंतं करेति । दसासु० द १० हे आयुष्मन्त ! श्रमणो ! उस निदान रहित क्रिया का यह कल्याण रूप फल- विपाक होता है कि जिससे उसी जन्म में भवग्रहण से सिद्ध हो जाता है और सब दुःखों का अंत कर देता है । भगवान् के निदान व अनिदान रूप उपदेश को सुनकर बहुत से साधु और साध्वियों की आत्म शुद्धि का विवेचन ततेणं बहवे निग्गंथा थ निग्गंथीयो य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयम सोच्या णिसम्म समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति वंदित्ता ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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