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________________ ( २४७ ) त्तिकटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता आभिओगिए देवे सदावेइ, सद्दावेत्ता एवं घयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया। समणे भगवं महावीरे विहरइ एवं जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ जाव दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं करेह ( य कारवेह य करेत्ता य कारवेत्ता य खिप्पामेव एवमाणत्तियं) पञ्चप्पिणह। तेवि तहेव करेत्ता जाव पच्चप्पिणंति, नवरं-जोयणसहस्सवित्थिण्णं जाणं। सेसं तहेव । तहेव नामगोयं साहेइ, तहेव नट्टविहिं उवदंसेइ जाव पडिगया ॥१२॥ भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदह नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-कालीए णं भंते ! देवीए सा दिव्या देविड्ढी दिव्या देवजुई दिव्वे देवाणुभाए कहिं गए ? कहिं अणुप्पविठे ? गोयमा ! सरीरं गए सरीरं अणुप्पविठे/कुडागारसाला दिढतो ॥१३॥ -नाया० श्रु २/व १/अ १ उस काल उस समय में राजगृह नगर के बाहर गुणशील नाम का चैत्य था। उसमें श्रेणिक राजा रहता था। उसके चेलणा नाम की देवी थी। एकदा महावीर स्वामी गुणशील नामक चैत्य में पधारे। उनको वंदन करने के लिए परिषद् निकली यावत भगवान की सेवा करती रही। उस काल उस समय में काली नाम की देवी चमरचंचा राजधानी में कालावतंसक नामक भवन में काल नामक सिंहासन पर बैठी थी। उस समय चार हजार सामानिक देवियों, चार महत्तरिका देवी, परिवार सहित तीन परिषद्, सात अनिक, सात अनिक के अधिपति, सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा दूसरे भी कालावतंसक नामक भवन में बसने वाले बहुत असुरकुमार जाति के देव और देवियों के साथ परिवारित मोटा सुभट आदि सहित यावत विचरती थी। वहाँ श्रमण भगवान महावीर को जंबूद्वीप नाम के द्वीप के भरतक्षेत्र में राजगृह नगर के गुणशील नामक चैत्य में यथाप्रति रूप (साधु के योग्य) अवग्रह (स्थान) याचकर--संयम और तप से आत्मा को भावित होते देखा। देखकर काली देवी हृष्ट, पुष्ट हुई, चित्त में आनंद को प्राप्त हुई। मन में प्रीति को प्राप्त हुई यावत हृत-हृदय होती हुई सिंहासन के ऊपर खड़ी हुई। खड़ी होकर पादपीठ से नीचे उतरी। नीचे उतर कर पादुका को निकाली। निकालकर तीर्थकर के सम्मुख सात-आठ पैर चली/चलकर वामजानु को ऊँचा रखा । ऊँचा रखकर दक्षिण जानु पृथ्वीतल में स्थापित कर तीन बार मस्तक को पृथ्वीतल में स्थापित किया। स्थापित कर उस मस्तक को कुछ ऊँचा किया । ऊँचाकर कटक और वृटित (बाजुबंध ) से स्तम्भ रूप हुई दोनों भुजायें भेलीकी, भेलीकर करतल ( दोनों हाथ के तल को ) यावत जोड़कर बोली Jain Education International For Private & Personal Use Onky www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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