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________________ ( ११५ ) सोवत्थिय-सिरिवच्छ-णं दियावत्त - वद्धमाणग - भदासण-कलस - मच्छदप्पणया । तयाणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दसणरइय-आलोय-दरिसणिजा वाउद्ध य-विजयवेजयंती य ऊसिया गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुवीए संपडिया ! ओव० सू ६३, ६४ कूणिक राजा जहाँ बाहरी सभाभवन था, जहाँ आभिषेक्य श्रेष्ठ हस्ति था-वहाँ आया, वहाँ आकर अंजनगिरि = ( काजल के पर्वत ) के शिखर के समान गजपति पर नरपति सवार हुआ। उस भभसार पुत्र कूणिक राजा के आभिषेक्य हस्तिरत्न पर सवार हो जाने पर सर्व प्रथम ये आठ मंगल क्रमशः रवाना किये गये । वे इस प्रकार है १-स्वस्तिक, २-श्रीवत्स, ३-नन्द्यावर्त, ४-वर्द्ध मानक, ५-भद्रासन, ६-कलश ७ --मन्स्य और = दर्पण । इसके बाद जल से परिपूर्ण कलश एवं झारी और दिव्य छत्र पताका-जो कि चामर से युक्त, राजा के दृष्टिपथ में स्थित, वायु से फहराती हुई विजय सूचक-वैजयन्ती नामक लघुपताकाओं से युक्त और ऊँची उठाई हुई थी। वह गगनतल को स्पर्श करती हुई सी आगे रवाना हुई। कौणिक की भगवान को अभिवंदन करने की तैयारी तएणं तस्स कूणियस्स रण्णो 'चंपाए णयरीए' मझमज्झेणं निग्गच्छमाणस्स बहवे अत्यत्थिया कामत्थिया भोगत्थिया लाभत्थिया कविसिया कारोडिया कारवाहिया संखिया चक्किया नंगलिया मुहमंगलिया वद्धमाणा पूसमाणया खंडियगणा ताहिं इट्टाहिं कताहिं पियाहिं. मणुण्णाहिं मणामाहिं मणाभिरामाहि हिययगमणिजाहिं वग्गूहि जयविजयमंगलसएहिं अणवरयं अभिणंदंता य अभित्थुणता य एवं वयासी जय-जयणंदा ! जय-जय भद्दा ! भदं ते, अजियं जिणाहि जियं पालयाहि, जियमज्झे वसाहि। इंदो इव देवाणं चमरो इव असुराणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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