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________________ संभवतीति, तथा अनुविचिन्त्य-भाषणतादिका द्वितीयस्य, तत्र विवेकःपरित्यागः तथा अवग्रहानुज्ञापनादिकास्तृतीयस्य, तत्रावग्रहानुज्ञापना १ तत्र चानुज्ञाते सीमापरिज्ञानं २, ज्ञाताया च सीमायां स्वयमेव 'उग्गहण' मिति अवग्रहस्याऽनुग्रहणता पश्चात् स्वीकरणमवस्थानमित्यर्थः ३, साधर्मिकाणांगीतार्थसमुदायविहारिणां संविनानामवग्रहो मासादिकालमानतः पंचक्रोशादिक्षेत्ररूपः सार्मिकावग्रस्तं तानेवाऽनुज्ञाप्य तस्यैव परिभोजनता-अवस्थान सार्मिकाणां क्षेत्रे वसतौ वा तैरनुज्ञाते एव वस्तव्यमिति भावः ४, साधारणंसामान्यं यद्--भक्तादि तदनुज्ञाप्याचार्यादिकं तस्य परिभोजनं चेति ५। तथा स्यादिसंसक्तशयनादिवर्जनादिकाश्चतुर्थस्य, प्रणीताहारः अतिस्नेहवानिति । हवामाता तथा श्रोत्रेन्द्रियपरत्यादिकाः पंचमस्य, अयमभिप्रायो-यो यत्र सजति तस्य तत्परिग्रहः इति, ततश्च शब्दादौ रागंकुर्वता ते परिगृहीता भवन्तीति परिग्रहविरतिविराधिता भवति, अन्यथा त्वाराधितेति वाचनान्तरे आवश्यकानुसारेण दृश्यन्ते । पहले तीर्थंकर तथा अंतिम तीर्थंकर =( भगवान ऋषभदेब तथा भगवान महावीर ) के समय काल में पंच महावतों की पचीस भावनायें कही है । यथा-- १-ईर्यासमिति २~मनगुप्ति प्रथम महावत ३---वचन गुप्ति ४.--पात्र में देखकर भोजन करना (एषणा समिति) ५-आदानभांडपात्र निक्षेपणा समिति ६-विचार पूर्वक बोलना ७--क्रोध का त्याग द्वितीय महावत ८-लोभ का त्याग ६-भय का त्याग १०-हास्य का त्याग ११ - अवग्रह की अनुज्ञा लेनी-याचना करनी । १२-अवग्रह की सीमा को जानना १३-स्वयं अवग्रहण का अनुग्रहण करना तीसरा महावत १४ -साधार्मिक के अवग्रह को उसकी आज्ञा लेकर परिभोग करना १५ ---साधारण भात-पानी का परिभोग गुर्वादिक की अनुज्ञा लेकर करना । १६-- स्त्री, पशु या नपुंसक अधिष्ठिन शयन-आसन का वर्जन करना १७.-स्त्री, कथा का वजन करना w , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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