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________________ ( ६० ) पुनः गोशालक ने कहा-मेरे धर्माचार्य भगवान महावीर जो वस्त्रादिक संग से रहित और शरीर में भी अपेक्षा रहित है । ऐसे निर्ग्रन्थ होने चाहिए। - वे मुनि जिनेन्द्र भगवान महावीर को नहीं जानते थे-इस कारण गोशालक के ऐसे वचनों को सुनकर बोले-जैसा तुम हो। ऐसे ही तुम्हारे धर्माचार्य होंगे। क्योंकि वे स्वयं की तरह लिंग को ग्रहण करने वाले हैं । क्षुधातर गोशालक उन मुनियों के वचनों को सुनकर शाप दिया-“यदि मेरे गुरु का तप तेज हो तो यह उपाश्रय जलकर भष्म हो जाना चाहिए।" प्रत्युत्तर में उन मुनियों ने कहा- तुम्हारे कथन से हम नहीं जलेंगे । गोशालक अलग होकर भगवान के पास आकर कहने लगा कि९ नंदीषण... (क) xxx । ततो भयवंतंबायं नाम गामो, तत्थ आगच्छति, तत्थ नंदिसेणा नाम थेरा बहुस्सुया बहुपरिवारा पासाबञ्चिजा, तेऽवि जिणकप्पस्स परिकम्म करेंति, सामी बाहिं पडिम ठितो, गोसालो अतिगतो, तहेव पव्वइए पेच्छह खिसइ य, ते आयरिया तदिवसं चउक्के पडिमंठिया, पच्छा तहिं आरक्खियपुत्तेण हिंडतेण चोरत्तिकाऊण भल्लएणाहया, केवलनाणं, सेसं जहा मुणिचंदस्स जाव गोसालो बोहित्ता आगतो lxxxi मलय टीका-भगवान् तम्बाके नाम ग्रामे गतः तत्र नन्दिषेणाः सूरयस्तेषां चतुम्के प्रतिमा, कायोत्सर्गः, ततः आरक्षिकैपहणमिति-मारणं । तं बाए नंदीसेणो पडिमा आरक्खि वहण भयउडह णं । कूविय चारिय मुक्खो विजय पगम्भा य पत्ते ॥ ४८४ ॥ -आव० निगा ४८३०, १८४१ (ख) क्रमेण प्रययौ स्वामी तुंबाके सन्निवेशने। बहिश्चास्थात्प्रतिमया गोशालो ग्राममभ्यगात् ॥ ५७५॥ तत्र पार्श्व शिष्यान्नन्दिषणान् वृद्धान् बहुश्रुतान् परिवारभृतो मुक्त्वा गच्छचिन्तामशेषतः ॥ ५७६ ॥ जिनकल्पप्रतिकर्म प्रपन्नान्मुनिचन्द्रवत् । दृष्ट्वा जहास गोशालः स्वाम्यभ्यर्णमगात्पुनः ॥ ५७७ ॥ नक्तं चतुम्के ते तस्थुर्नन्दिषेणमहर्षयः । कायोत्सर्गभृतो धर्मध्यानस्थाः स्थाणुवस्थिराः ॥५७८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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