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________________ ( १८ ) उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी बहुत से स्थविर (ज्ञान और चारित्र में वृद्धि प्राप्त ) भगवंत उनके साथ थे। __ वे स्थविर भगवंत जाति (= मातृपक्ष ) कुल (- पितृपक्ष ) बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन (=श्रद्धा या सामान्यज्ञान ) चारित्र, लजा ( अपवाद से डरने का भाव ) और लाघव (= वस्त्र आदि अल्प उपधि को और ऋद्धि, रस और साता के गौरव से रहित अवस्था ) से संपन्न युक्त थे। वे ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी और यशस्वी थे। वे क्रोध, मान, माया, (- छल कपट) और लोभ के हृदय में उत्पन्न होने पर, उन्हें विफल कर देते थे-उनके प्रवाह में नहीं बहते थे । इन्द्रियों पर अपना अधिकार रखते थे। निद्रा के वशीभूत नहीं होते थे और परीषहों को जीत लेते थे। वे जीने की आशा और मरने के भय से बिल्कुल मुक्त थे । वे उत्तम व्रत के धारक थे । करुणादि श्रेष्ठ गुणों के स्वामी थे। आहार शुद्धि आदि श्रेष्ठ क्रिया के पालक थे। महाव्रत आदि श्रेष्ठ आचार के धनी थे। वे अनाचार को रोकने में कुशल, श्रेष्ठ निश्चयवाले, माया और मान के उदय का निग्रह करने में कुशल, उत्तम लाघव के धारक एवं क्रोध और लोभ के उदय का निग्रह करने में चतुर थे। वे प्रशप्ति आदि विद्या के श्रेष्ठ धारक, उत्तम मंत्रज्ञ, श्रेष्ठ ज्ञानी, ब्रह्मचर्य में या कुशलानुष्ठान में स्थित, नय में प्रधान, उत्तम अभिग्रहों के स्वामी, सत्यप्रधान और शौच (=निलेपता और दोष से रहित सदाचारी) के श्रेष्ठ धारक थे । उनकी सब जगह भूरि-भूरि प्रशंसा होती थी। उनके लजा प्रधान और जितेन्द्रिय शिष्य थे । वे जीवों के सुहृद् ( सोहीमित्र ) थे-किसी के प्रति उनके हृदय में कलुषित भावना नहीं थी। तपः संयम के बदले में पुण्य-फल की इच्छा-याचना नहीं करते थे। उत्सुकतासे रहित थे । संयम में बाहर की मनोवृत्तियों से रहित थे । अनुपम अथवा विरोध से रहित वृत्तियों के धारक थे। श्रमण की क्रियाओं में पूर्णतः लीन रहते थे। गुरुओं के द्वारा दमन को ग्रहण करते थे-विनय के करने वाले थे और इस निग्रंथ प्रवचन (जड़-चेतन की ग्रन्थियों या उलझनों के सुलझाने के लिए वीतरागों के द्वारा कहे कहे गये अनुशासन ) को भी आगे रखकर विचरण करते थे । (ख) तेसि णं भगवंताणं 'आयावाया' वि, विदिता भवंति, परवाया वि' विदिता भवंति आयावायं जमइत्ता नलवणमिव मत्तमातंगा अच्छिहपसिणवागरणा रयणकरंडगसमाणा कुत्तियावणभूया परवाइपमहणा [ परवाईहिं अणोषकता अण्णउत्थिएहि अणोद्ध सिज्जमाणा विहरंति अप्पेगइया आयारधरा...... ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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