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________________ वर्धमान जीवन - कोश ३२४ (ण) अन्येद्युर्वत्सदेशेऽत्रतकौशाम्बीपुरं परम् । कायस्थित्यै महावीरः प्राविशदुरागद्रगः ||११| पात्रोत्तमं तमालोक्य विच्छिन्न बंधनाभवत् । तद्दानाय तदा प्रत्युव्रजन्ती चंदना शुभात् ॥ ६२॥ ततो नीलालिमा केशभारस्त्रग्भूषणाङ्किता । । गत्वा सा विधिना नत्वा प्रतिजग्राह सन्मतिम् ॥ ६३ ॥ शीलमाहात्म्यतस्तस्या अभवत्कोद्रवोदनम् । शाल्यन्नं तच्छरावं च पृथुकाञ्चनभाजनम् ॥६४॥ अहो पुण्यविधिः पुंसां विश्वानघटितानपि । घटयत्येव दूरस्थान् मनोऽभीष्टान्न संशयः ||१५|| ततोऽस्मै परया भक्त्या तदन्नदानमूर्जितम् । नवप्रकारपुण्याढ्या ददौ सा विधिना मुदा ||६|| तत्क्षणार्जितपुण्येन सा चापाश्चर्य पंचकम् । संयोगं बन्धुभि सार्धं दानात्कि नाप्यतेऽत्रमोः ||१७|| जगद्व्यापि यशस्तस्या अभवच्छ शिनिर्मलम् । इष्टबन्ध्वादिवस्तूनां सङ्गमोऽभूत्मुदानतः ॥ ६=॥ - वीरवर्धमानच० अधि १३ किसी एक दिन उन महावीर प्रभु ने राग से रहित होकर शरीर स्थिति के लिए वत्सदेशकी इस कौशम्बीपुरी में प्रवेश किया । उन उत्तमात्र महावीर प्रभु को देखकर चंदना के भाव दान देने के हुए। पुण्योदय से उसके बंधन तत्काल टूट गये । सिर काले भौरों के सामान केशभारसे, और शरीर माला- आभूषणों से युक्त हो गया। तब उसने सामने जाकर और उन्हें नमस्कार कर सन्मति प्रभु को पडिगाह लिया । उसके शील के माहात्म्य से कोदों का भात शालि चावलों का हो गया और वह मिट्टी का सिकोरा विशाल सुवर्ण पात्र बन गया । आचार्य कहते हैं कि अहो, यह पुण्य कर्म पुरुषों की समस्त अघटित और दूरवर्ती भो अभीष्ट मनोरथों को स्वयमेव घटित कर देता है, इसमें कोई संशय नहीं है । तब उस चंदना सती ने परम भक्ति के साथ नव प्रकार के पुण्यों से युक्त होकर अर्थात् नवधा भक्ति पूर्वक विधि से हर्षित होते हुए श्री महावीर प्रभु को वह उत्तम दान दिया । इस महान् दान के प्रभाव से उसी समय उपार्जित पुण्य के द्वार वह पंचाश्चर्यो को प्राप्त हुई और तभी बंधुओं के साथ उसका संयोग भी हो गया । अहो ! पुण्य से क्या नहीं प्राप्त होता है । उस चन्दना का सुदान के प्रभाव से चंद्रमा के समान निर्मल यश जगत् में व्याप्त हो गया और इष्ट बंधुजनों और इष्ट वस्तुओं का भी सगम हो गया । ( त ) अण्णहिं दिणि भव्व समुद्धरणु || पिंडत्थि जाणिय-जीव-गड़ । कोसंबी -पुर-वरि पडसरह । पित्ता-नियल - णिरुद्ध पयाइ वेडय- णिव दुहियाइ || आविवि संमुहियाड पणवेघिणु दुहियाइ ||७|| वीरजि० संधि २ शुक्रड४ एक दिन श्रमण भगवान् महावीर भव्यों के उद्धार की भावना रखते हुए तथा जीवों की विचित्र गति को समझते हुए आहार के निमित्त कौशाम्बीपुरी में प्रविष्ट हुए । सभी सांकल के बंधे हुए पैरों से युक्त उस दुःखी चेटक राजपुत्री ने भगवान के समुख आकर प्रणाम किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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