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________________ वर्धमान जीवन-कोश २८७ संसारिया खलु पाणा-थावरावि पाणा तसत्ताए पच्चायति । तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायति । थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उववज्जति । तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जंति। तेसिं चणं थावरकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं घत्तं -सूय० क्षु २/अ ७/सू १० उदक पेढालपुत्र भगवान् गौतम से बोले-आयुष्मान् गौतम ! कुमारपुत्र नामके श्रमण निर्ग्रन्थ है-जो तुम्हारे प्रवचन के अनुयायी है- वे प्रत्याग्ज्यान के लिए आये हुए श्रमणोपासक गृहपतियों को यह प्रत्याख्यान कराते हैं कि अपने से गुरु (बली आदि) के अभियोग (जबरन) को छोड़कर, गाथापति-चोर-ग्रहण-विमोक्षण न्याय से त्रस प्राणियों की हिंसा का त्याग है यह प्रत्याख्यान करना और कराना दुष्प्रव्याख्यान है। ऐसे प्रत्याख्यान करने वाले अपनी प्रतिज्ञा नहीं पा सकते हैं। इसका कारण क्या है ? कारण यह है कि प्राणियों में परिवर्तन होता रहता है -स्थावर प्राणी स्थावर काया को छोड़कर, त्रसकाया में त्रसरूप में उत्पन्न हो जाते हैं और त्रसप्राणी त्रसकाया को छोड़कर स्थावर काया में स्थावर रूप से उत्पन्न हो जाते हैं। उनमें से स्थावर काया में उत्पन्न हुए त्रस प्राणिवों की हिंसा, उन श्रमणोंपासकों से हो जाती है। एवं ई पच्चक्खं ताणं सुपच्चक्खायं भवइ। एवं ण्हं पच्चकवावेमाणाणं सुपच्चक्खावियं भवइ । एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा णाइयरंति सयं पइण्णं-"णण्णत्थ अभिजोगेणं गाहावइ-चोरग्गहण विमोक्खणयाए तसभूएहिं पाणेहिं णिहायदंडं।" एवं सइभासाए परिकम्मे विजमाणे जे ते कोहा वा लोहावा परं पच्चक्खावेंति। अयं पि णो उवएसे किं णो णेयाउए यवइ ? अवियाई आउसो ! गोयया ! तुभं पि एयं एवं रोयइ। सूय० श्रु २/अ/सू ५० इस प्रकार प्रत्याख्यान करना और कराना सुप्रत्याख्यान है। इस प्रकार प्रत्याख्यान कराने से वे प्रतिज्ञा का उल्लंघन नहीं कर ककते हैं कि अभियोग को छोड़कर, गाथापति-चोर-ग्रहण-विमोक्षण न्याय से त्रसभूति प्राणियों की हिंसा करने का त्याग है । इस प्रकार की भाषा में (दोष परिहार की) शक्ति विद्यमान होने पर, जो कोई क्रोध से या लोभ से प्रत्याख्यान दूसरे को कराते हैं (उसके) समान यह (भूत' शब्द लगाये बिना कराये गये प्रत्याख्यान) भो उपदिष्ट नहीं है-न्यायसंगत नहीं है। आयुष्मान् गौतम ! क्या तुमको यह रुचिकर है। .४ भगवान् गौतमका उत्तर सवायं भावं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो ! उदगा ! णोखलु अम्हं एयं एवं रोयइ जते समणा वा माहणाबाएवमाइक्खंति, एवं भासेंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवति णो खल ते समणा वा निग्गंथा वा भास भासंति, अणुतावियं खलु ते भासं भासंति, अब्भाइक्खंति खल ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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