SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्धमान जीवन-कोश नाग्रहणात्। तथाहि- चक्षुगदिविज्ञानस्यात्तम्बनं परमाणवा वा म्युः परमाणुसमूहो। वाऽवयवी वा ? x x x I एवं विभ्रमे स्फुटीकृते भगवानुत्तरमाह... वेदपदानामर्थ न जानासि, चशब्दात् युक्ति भावार्थ च, तत्र तव संशयनिवन्धनाना वेदपदानामयमर्थः-स्वप्नोपमं व सकलमित्यादीनि. अध्यात्मचिन्तायां मणिकनकाङ्गनादिसंयोगस्य अनियतत्वात अस्थिरत्वान् विपाककटुकत्वात् आस्थानिवृत्तिपराणि, न तु तदत्यन्ताभावप्रतिपादकानि, द्यावापृथिवित्यादीनि तु भूनमत्ताप्रतिपादकानि भवतोऽपि प्रतीतानि. ततो वेदसिद्धा सिद्धा भूतानां सत्ता, यदप्युक्त-भूनाभ व एव ममोचीनम्तेपां प्रमाणेनाग्रहणादित्यादि, तदप्यसम्यक् भूतानां प्रत्यक्षादिप्रमाणमिद्धत्वान। .xi अवयविपक्षोक्तं दृषणमनवकाशं, पृथग्द्रव्यान्तरपस्यायविनोऽम्माभिानभ्युपगमान , य एव हि परमाणूनां तथ विधदेशकालादिमामग्रीविरंपमापक्षाणां विवक्षितजलधारणादिक्रियासमर्थः समानः परिणामविशंपः, सोऽवयवी. ततः कुना देशकास्न्यवृत्तिविकल्पदोपावकाशः ? शेपं तु ममवायवक्षोक्तमन पगमा | नं: क्षिनिमावहति । एवं भगवनाऽभिहिते स किं कृतवानित्याहछिन्नंमि संसयंमी जाइजरामरणविप्पमुकणं । मो समणा पब्वइओ पंचहिं सह खंडियसाहिं ।।१३।। मलय टीका---- अश्या व्याख्या पूर्ववन -आव. निगा ६५० स ६१३ (ख) व्यक्तोऽप्यचिन्तयद् यक्त सर्वज्ञो भगवानयम। इन्द्रभूत्यादयो येन जिता बंदा इवत्रयः ।।११८॥ ममापि मंशयं देत्ता निश्चितं भगवानयम । तनः शिायी भविष्यामि ध्यात्यैवं सोऽप्यगात्प्रभुम ।११६। नमप्युवाच भगवान भो व्यक्त ! तव चेतसि । न हि भूनानि विद्यान्तं पृश्यादीनीति संशयः ।।१०।। तपां तु प्रतिपत्तिा मा भ्रमाजनचन्द्रवन। सवशून्यत्वमेवेवमिनिने बढ़ . आशयः ।।१२।। तन्मिथ्या सर्वशून्यत्वपले भुवनविश्रुताः। म्युः स्वप्नाऽवप्नगन्धर्ष पुरेतरभिदा न हि ॥१२॥ इत्थं च च्छिन्न मंदेहो व्यक्तोऽपि व्यक्तवामनः । परिवत्राज शिष्याणां शत: पंचभित्वित: ॥१२३।। -त्रिशलाका० पय १८ मग ५ इसके पश्चात् व्यक्त ने स्पष्टता से विचार किया कि ये अवश्य ही सर्वज्ञ भगवान है. जिन्होंने तोन बद की तरह इन्द्रभूति आदि तीनों को जीत लिया है। ये मर्वज्ञ भगवान हमारा भी मंशय अवश्य दूर कर देग....बाद में में उनका शिष्य होगा। सा विचार कर व्यक्त भगवान के पास आया। उसे देखकर भगवान बोले-'हे व्यक्त। तुम्हारे चिन में मा संशय है कि पृथ्वी आदि पंचभूत नहीं है। उसकी जो यह प्रतीति होती है वह भम से जल में चन्द्र की तरह है। ये सर्व शून्य ही है-यह तुम्हारा दृढ़ आशय है। परन्तु यह मिथ्या है- क्योंकि यदि सर्व शून्यता ही पक्ष ग्रहण किया जाता है तो भुवन में विख्यात हुए स्वप्न, अस्वप्न, गंधर्वपुर आदि भेद घटित ही नहीं होते हैं। भगवान् की इस प्रकार वाणी सुनकर व्यक्त का संशय नष्ट हो गया---इस कारण उमने भी व्यनवागना को बताकर पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy