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________________ २४४ वर्धमान जीवन-कोश मिथ्या तद्देशप्रत्यक्षो जीवः सर्वशरीरिणाम् । तद्गुणानामीहादीनां प्रत्यक्षत्वात्स्वसंविदा ॥११॥ देहेन्द्रियातिरिक्तः स इन्द्रियाऽपगमेऽपि यत् । इन्द्रियार्थान् संस्मरति मरणं च प्रपद्यते ॥११६।। इति स्वामिगिराच्छिन्नसंशयो विमुखो भवात्। पर्यव्राजीवायुभूतिः शिष्यपंचशतीयुतः ॥११॥ –त्रिशलाका पर्व १०/सर्ग ५ अग्निभूति ने भी दीक्षाग्रहण की है-यह बात सुनकर वायुभूतिने विचार किया कि 'जिसने हमारे दोनों भाइयों को जीत लिया है तो वह निश्चव ही सर्वज्ञ होना चाहिए। अतः मुझे उचित है कि भगवान के पास जाकर, वंदनकर हमारे कृत पाप को धोना चाहिए। इसी प्रकार मेरा भी संशय दूर करु । इस प्रकार विचार कर वायुभूति भगवान् के पास आया और प्रणाम कर बैठा। उसे देखकर भगवान् बोले कि हे वायुभूति ! तुम्हें जीव और शरीर के विषय में बड़ा भ्रम है। प्रत्यक्षादि प्रमाण से ग्रहण न होने के कारण जीव शरीर से अलग दिखाई नहीं देता। इस कारण जल में परपोटे की तरह जीव शरीर में ही उत्पन्न होकर शरीर में ही मूर्छा को प्राप्त होता है-ऐसा तुम्हारा आशय है । परन्तु वह मिथ्या है। क्योंकि सर्व प्राणियों को यह जीव देश से तो वह प्रत्यक्ष है क्योंकि उसके इच्छादि गुण प्रत्यक्ष होने से जीव स्वसंविद् है फलस्वरूप उसका स्वयं को हो अनुभव होता है। वह जीव शरीर और इन्द्रियों से भिन्न है। और जिस समय इन्द्रियाँ नाश को प्राप्त होती है। उस समय भी वे इन्द्रियाँ प्रथम भोगे हुए अर्थ को संस्मरण करती है। ऐसी भगवान् को वाणी सुनकर स्वयं का संशय नष्ट होने पर वायुमूति संसार से विमुख होकर पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षा ग्रहण की। .२ वायुभूति के माता-पिता का नाम : इतश्च मगधे देशे गोवरग्रामनामनि। ग्रामे गोतमगोत्रोऽभूद्वसुभूतिरिति द्विजः ॥४॥ तस्येन्द्रभूत्यग्निभूतिवायुभूत्यभिधाः सुताः। पत्न्यां पृथिव्यामभवंस्तेऽपि गोत्रेण गोतमाः ॥५०॥ -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ वायुभूति के पिता का नाम वसुभूति था तथा माता का नाम पृथिवी था। गौतम गोत्र था। .३ वायुभूति गणधर. • तृतीय गौतम से संबोधित : ___ तच्चे गोयमे वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दोच्चं गोयमं अग्गिभूइ अणगारं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एयमट्ठ सम्मं विणएणं भुज्जो-भुज्जो खामेइ। -भग० श ३/उ १/सू ११ किसी तत्त्वचर्चा में अग्निभूति और वायुभूति का वाद-विवाद हो जाने पर-तत्पश्चात् भगवान् महावीर ने उसका समाधान दिया। इसके बाद तीसरे गौतम-वायुभूति ने अग्निभूति गणधर से बारम्बार क्षमत-क्षामना किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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