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________________ २२० वधमान जीवन-कोश गौतम स्वामी कहते हैं कि जो सुमार्ग से जाते हैं और जो उन्मार्ग में प्रवृत्ति करते हैं-उन सबको मैंने जान लिया है, इसलिए हे मुने ! मैं सुमार्ग से भ्रष्ट नहीं होता। ___ केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वह सुमार्ग और कुमार्ग कौन-सा कहा गया है । इस प्रकार प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे - जो कुप्रवचन को माननेवाले पाखण्डी लोग हैं, वे सभी उन्मार्ग में प्रवृत्ति करनेवाले हैं। जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित मार्ग ही सन्मार्ग है. इसलिए यह मार्ग ही उत्तम मार्ग है। (अ) धर्म रूप द्वीप के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ॥६॥ महा - उदगवेगेण, वुज्झमाणाण पाणिणं। सरणं गई पइट्ठा य, दीवं के मण्णसि मुणी ॥६५॥ अत्थि एगो महादीवो, वारिमज्झे महालओ। महाउदगवेगस्स, गई तत्थ ण विजई ॥६६।। दीवे य इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥६॥ जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥६८! उत्त० अ २३/गा ६४ से ६८ हे गौतम ! अपकी बुद्धिश्रेष्ठ है । आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है, इसलिये हे गौतत ! उसके विषय में भी मुझे कहिए अर्थात् मेरा जो नववां संशय है-उसे भी दूर कीजिये। नववा प्रश्न-केशीकुमार श्रमण पूछते हैं कि हे मुने पानी के महान प्रवाह द्वारा बहाये जाते हुए प्राणियों के लिए शरणरूप तथा गतिरूप और प्रतिष्ठा रूप अर्थात् दुःख से पीड़ित प्राणी जिसका आश्रय लेकर सूखपूर्वक रह सके ऐसा द्वीप आप किसे मानते हैं । (समुद्र ) पानी के मध्य में बहुत ऊचा एवं विस्तृत एक महाद्वीप है उस पर पानी के महान् प्रवाह की गति नहीं है अर्थात् उस महाद्वीप में जल का प्रवेश नहीं हो सकता। केशी कुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वह द्वीप कौन सा कहा गया है। उपरोक्त 'प्रकार से प्रश्न करते हुए केशी कुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे। ____ जरा और मरण के वेग से प्रवाहित होते हुए प्राणियों के लिए धर्मरूपी द्वीप है, वह गति रूप है और उत्तम शरण रूप है तथा प्रतिष्ठा रुप है अर्थात धर्म ही एक ऐसा द्वीप है जिसका आश्रय लेकर प्राणी संसार रूपी समुद्र से पार हो सकते हैं। (ट) नौका के सम्बन्ध में : साह गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ॥६६॥ अण्णवंसि महोहंसि. णावा विपरिधावई। जंसि गोयम आरूढो कहं पारं गमिस्ससि ? ॥७०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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