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________________ २१४ वधमान जीवन-कोश (ज) तओ तित्थाहिव-गणहरो त्ति काऊण सीसाईण बोहणत्थं सविणयं जाणमाणेणावि पुच्छिओ गोयमसामी केसीगणहरेण पवुत्त-संसर (ए)। गोयमेण भणियंउसभसामी [तित्थ-साहु] णो अत्त्वंतमुज्ज (ज्जु) य-जडा, वद्धमाणसामि-तित्थ-साहुणो पुण अच्चंत-वक्क-जडा। अओ पुव्विल्ल-साहूण दुव्विसोहओ, पच्छिमाण पुण दुरणुपालओ। इमिणा कारणेण दोण्हंपि पंचमहव्वयाइलक्खणो। मज्झिम-जिण-तित्थसाहुणो पुण उजुया विसेसण्णुणो, तेण धम्मे दुहा कए त्ति । निच्छएण पुण सम्मदंसण-नाण-चरित्ताणि निव्वाण-मग्गो, ताणि य सव्वेसि पि तित्थयरं सोसाणं सरिसाणि त्ति। -धर्मोप० पृ० १४१, १४२ .२ केशी-गौतम-संवाद : (क) चारयाम ( महाव्रत) के संबंध में : चाउजामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महामुणी ।।२३।। एगकज पवण्णाणं, विसेसेकिण्णु कारणं !! धम्ने दुविहे मेहावि ! कहं विप्पच्चओ ण ते २४|| तओ केसिं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी। पण्णा समिक वए धम्म, तत्तं तत्तविणिच्छियं ॥२५॥ पुरिमा उज्जुजडा उ, वक्कजडा य पच्छिमा। मज्झिमा उज्जुपण्णा उ, तेण धस्मे दुहा कए ॥२६॥ पुरिमाण दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोझो सुपालओ ॥२॥ -उत्त० अ २३/गा २३ से २७ पहला प्रश्न-महामुनि पार्श्वनाथ भगवान् ने जो यह चार महावत वाला धर्म कहा है और भगवान् वर्धमान स्वामी ने जो यह पाँच महाव्रत वाला धर्म कहा है। एक ही कार्य ( मोक्ष प्राप्ति कार्य रूप ) के लिए प्रवृत्ति करने वालों में परस्पर विशेषता का क्या कारण है अर्थात् हम दो प्रकार के धर्म के विषय में हे बुद्धिमन् ! क्या आपको संशय नहीं होता ? अर्थात् भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् वर्धमान स्वामी दोनों सर्वज्ञ हैं, तो फिर मतभेद का क्या कारण है ? इसके बाद इस प्रकार कहते हुए केशीकुमार श्रमण से गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे कि जीवादि तत्त्वों समें निश्चय किया जाता है-ऐसे धर्म तत्त्व को बुद्धि ही ठीक समझ सकती है अर्थात् बुद्धि द्वारा ही तत्त्वों का निर्णय होता है। पहले तीर्थंकर के साधु ऋजुजड़ होते हैं और अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होते हैं और मध्य के बाइस तीर्थंकरों के साधु ऋजप्राज्ञ होते हैं इसलिए धर्म दो प्रकार का कहा गया है। नोट-प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजुजड़ होते हैं। वे तत्त्वों के अभिप्राय को शीघ्र नहीं समझ पाते हैं । अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होते हैं, उन्हें हितशिक्षा दी जाने पर भी वे अनेक प्रकार के कुतों के द्वारा परमार्थ की अवहेलना करने में उद्यत रहते हैं, तथा वक्रता के कारण छलपूर्वक व्यवहार करते हुए अपनो मूर्खता को चतुरता के रूप में प्रदर्शित करने की चेष्टा करते हैं। मध्य के बाइस तीर्थंकरों के साधु ऋजुप्राज होते हैं अर्थात् सरल और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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