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________________ वर्धमान जीवन-कोश सेणिय हउँ आणिउ दिय - पमुहु ।। महु संसयेण संभिण्ण मइ। जिणु पुच्छिउ जीवहु तणिय गइ ॥ णाहें महु संसउ णासियउ। मइँ अप्पउ दिक्खइ भूसियउ ।। मइँ समउ समण-भावहु गयइँ। पावइयइँ दियहँ पंचसयइँ ।। घत्ता–पत्ते मासे सावणि बहुले पाडिवए दिणि । उप्पण्णउ चउ-बुद्धिउ महु सत्तवि रिसि-रिद्धिउ । -वीरजि० संधि २/कड ६/पृ०३२ गौतम गणधर राजा श्रेणिक से कहते है कि हे श्रेणिक ! उस समय इन्द्र प्रसन्नमुख होकर मुझ द्विजप्रमुख को यहां ले आया ( भगवान् महावीर के पास ) उस समय मेरी मति संशय से भ्रांत थी, अतएव मैंने जिनेंद्र से जीव के गति के विषय में प्रश्न किया। भगवान् ने मेरे संशय को दूर कर दिया, तब मैंने अपने आपको मुनि-दीक्षा से विभूषित किया। मेरे साथ अन्य पाँच सौ द्विज भी भगवान के पास प्रव्रज्या लेकर श्रमण बन गये। तत्पश्चात् श्रावण मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का दिन आने पर मुझे चारों प्रकार की बुद्धि तथा सातों ऋषि-ऋद्धियाँ भी उत्पन्न हो गयीं। (ग) श्रीवर्धमानमानम्य संयम प्रतिपन्नवान् तदैव मे समुत्पन्नाः परिणामविशेषतः ॥३६॥ मृद्धयः सप्तसर्वाङ्गानामप्यर्थपदान्यतः। भट्टारकोपदेशेन श्रावणे बहुले तिथौ ॥३६६।। पक्षादावर्थरूपेण सद्यः पर्याणमन् स्फुटम्। पूर्वाह्ने पश्चिमे भागे पूर्वाणामप्यनुक्रमात् ।।३७०।। इत्यनुज्ञातसर्वाङ्गपूर्वार्थों धीचतुष्कवान् । अंगानां ग्रंथसंदर्भ पूर्वरात्रौ व्यधामहम् ।।३७१।। पूर्वाणां पश्चिमे भागे प्रथकर्ता ततोऽभवम् । इति श्रुतद्धिभिः पूर्णोऽभवं गणभृदादिमः ॥३७२।। -उत्तपु०/पर्व ७४/श्लो ३६६ से ३७२ दीक्षा के बाद-परिणामों की विशेष शुद्धि होने से मुझे ( इन्द्रभूति ) उसी समय सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं। तदनन्तर भट्रारक वर्धमान स्वामी के उपदेश से मुझे श्रावण बदी प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न काल में समस्त अंगों के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। इसी तरह उसी दिन अपराल काल में अतुकम से पूर्वो के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया। इस प्रकार जिसे समस्त अंगों तथा पूर्वो का ज्ञान हुआ है और जो चार ज्ञान से सम्पन्न हैं ऐसे मैंने रात्रि के पूर्वभाग में अंगों की रचना और पिछले भाग में पूर्वो की अन्य रचना की । उसी समय से मैं ( इन्द्रभूति ) ग्रन्यकर्ता हुआ । इस प्रकार श्रुत ज्ञान रूपी ऋद्धि से पूर्ण ।। मैं भगवान् महावीर स्वामी का प्रथम गणधर हो गया। .५ गौतम का दूसरा नाम इन्द्रभूति : तदैवास्य गणेशस्य सौधर्मेन्द्रोऽतिभक्तितः। दिव्यार्चनैः प्रपूज्यैष पादाब्जौ त्रिजगन्नुतौ ॥१५६।। नत्वा कृत्वा स्तुतिं दिव्यैर्गुणमध्ये जगत्सताम् । इन्द्रभूतिरयं स्वामीत्युक्त्वा नामान्तरं व्यधात् ।।१६०।। -वीरवर्धमानच० अधि १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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