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________________ वर्धमान जीवन-कोश विज्ञानघन एवेति ज्ञानोपयोगदर्शनोपयोगरूपं विज्ञानं ततोऽन्यन्यत्वात आत्मा विज्ञानधनः, प्रतिप्रदेशमनन्तविज्ञानपर्यायसंघातात्मकत्वाद्वा विज्ञानघनः ।xxx। आत्मनः प्रत्यक्षसिद्धत्वात् , तद्गुणस्य ज्ञानस्य स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धत्वात् , तथाहि-स्वसंविदिता एवाग्रहेहावायादयः उत्पद्यन्ते व्ययन्ते वा, ततस्तद्गुणस्य स्वसंविदितत्वात सिद्धत्मात्मनः प्रत्यक्षत्वं । x x x ततः प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणसिद्धत्वावेदप्रतिष्ठितत्वाच्च सौम्य । अस्ति जीव इति प्रतिपत्तव्यम्। छिन्नम्मि संसयम्मि अ जिणेण जर-मरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पव्वइओ पंचहिं सह खंडियसएहि ॥६०१।। टीका- उक्तप्रमाणेन जिनेन-भगवता वर्द्धमानस्वामिना जरामरणाभ्यामुक्तलक्षणाभ्यां विप्रमुक्तइव विप्रमुक्तः तेन छिन्ने-निराकृते संशये स इन्द्रभूतिः पंचभिः खण्डिकशतैः-छात्रशतैः सह श्रमणः प्रव्रजितः सन् साधुः संवृत्त इत्यर्थः॥ अपापा नगरी में सोमिल नामक एक धनाढ्य ब्राह्मण यज्ञकर्म में विचक्षण ऐसे इन्द्रभूति आदि ग्यारह विनों को यज्ञ करने के लिए बुलाया। उस समय वहां भगवान महावीर पधारे हुए थे। वीर प्रभु को वंदन करने की इच्छा से आते हुए देवों को देखकर गौतम.-इन्द्रभूति ने अन्य ब्राह्मणों को कहा-'इस यज्ञ के प्रभाव को देखो। अपने मंत्रों से बुलाये हए ये देव प्रत्यक्ष होकर इस यज्ञ में आ रहे हैं। उस समय चंडाल के गृह की तरह यज्ञ की वाट को छोड़कर देव समवसरण में जाते हुए देखकर लोग कहने लगे-हे नगरजनो ! अतिशय सहित सर्वज्ञ प्रभु उद्यान में पधारे है । उन्हे वंदनार्थ ये देव हर्षपूर्वक जाते हैं । "सर्वज्ञ' ऐसा अक्षर सुनकर जानो कोई आक्रोश किया हो वैसा इन्द्रभूति कोपकर स्वजन के प्रति बोला-अरे धिक्कार ! अरे धिक्कार ! मरुदेश के मनुष्यों की तरह आम्र को छोड़कर करीर पास में जाता है उसी प्रकार ये लोग मुझे छोड़कर इस पाखंडी के पास जाते हैं। क्या मेरे से आगे कोई दूसरा सर्वज्ञ है। सिंह के आगे दूसरा कोई पराक्रमी होता ही नहीं है। कदाचित् मनुष्य तो मूर्ख होने से उनके पास जाते हैं तो भले ही जायें-परन्तु ये देव कैसे जाते हैं ? इससे उस पाखंडी का दम्भ अपेक्षा से महान् लगता है- परन्तु वे जैसे सर्वज्ञ हैं वैसे देव भी जाने जाते हैं। क्योंकि जैसे यक्ष होता है वैसे ही बलि होता है । - अब इन देवों और मनुष्यों को देखते हुए मैं उसके सर्वज्ञपन का गर्व हनन कर लाऊ गा। इस प्रकार अहंकार से बोलता हुआ गौतम पांच सौ शिष्यों के साथ पदार्पण किया - जहाँ वीर प्रमु सुर-नरों से आवृतथे--वहां समवसरण में आया। प्रमु की समृद्धि और तादृश तेज को देखकर-'यह क्या है ? इसप्रकार इन्द्रभूति आश्चर्य को प्राप्त हुआ । उसी समय तो हे गौतम-इन्द्रभूति । तुम्हारा स्वागत है। इस प्रकार भगवान महावीर ने अमृत जैसी वाणी से कहा। यह सुनकर गौतम विचार में पड़ गया। क्या यह मेरा नाम और गोत्र भी जानता है। अथवा हमारे जैसे जगत्प्रसिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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