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________________ वर्धमान जीवन - कोश १७६ (ख) × × × द्वितीयायां पौरुष्याम || आह स कथयन् कथं कथयति ? उच्यते । × × × यथा एष गणधरश्छद्मस्थ इति, अशेषप्रश्नोत्तरप्रदानसमर्थत्वात् तस्य, एवं तावत् समवसरणवक्तव्यता सामान्ये- आव० भाग २ / निगा ५८६, ६०/ टीका नोक्ता, सम्प्रति प्रकृतमभिधीयते, गणधर छमस्थ होते हुए भी अशेष प्रश्नों के उत्तर देने में समर्थवान् होते हैं । इन्द्रभूति आदि एकादश गणधर यज्ञ विशेष के लिए मध्यम पापा नगरी में सोमिल ब्राह्मण द्वारा आमंत्रित होने पर आये थे । वे यज्ञ में तल्लीन थे । उन्होंने देवों को उधर आकाश से जाते हुए देखा । हमारी तरफ आ रहे हैं— उन्होंने ऐसा सोचा । परन्तु वे देव अन्यत्र पापा नगरी में जा रहे थे 1 उनकी नोट- ग्यारह गणधरों के निम्नलिखित आशंकाएं थी जिनका समाधान भगवान् महावीर से मिला । आशंकाओं का विवरण इस प्रकार है १ इन्द्रभूति - आत्मा का अस्तित्व है या नहीं ? २ - अग्निभूति - कर्म है या नहीं ? ३ - वायुभूति — जो जीव है, वही शरीर है या अन्य ? ४- व्यक्त - पंचभूत है या नहीं ५ – सुधर्मा — इस भव में जो जैसा है, परभव में वह वैसा ही होता है ? ६ - मण्डित - कर्मों का बंध व मोक्ष कैसे हैं ? ७ -- मौर्यपुत्र – स्वर्ग देव है या नहीं ? ८ - अकम्पित—– नरक है या नहीं ? ६ - अचल भ्राता - पुण्य-पाप है या नहीं । १० - मेतार्य - परलोक है या नहीं ११ प्रभास - निर्वाण है या नहीं ? या नहीं । . ४ गौतम गणधर के संशय तत्र जीव।दिसंशय।पनोदनिमित्तं गणधर निष्क्रमणमितिकृत्वा यो यस्य संशयस्तदुपदर्शनार्थमाह जीवे कम्मे तज्जीव भूअ तारिसय बंध मुक्खे च । देवा नेरइया वा पुन्ने परलोअ निव्वाणे ॥ यज्ञ की महीमा से ये देव भगवान् महावीर के दर्शनार्थ Jain Education International मलय टीका— आद्यस्य गणभृतो जीवे संशयः, किमस्ति नास्तिति । ग्यारह गणधरों के जीवादि का संशय उनकी दीक्षा में हेतुभूत बने । प्रथम गणधर के यह संशय था कि जीव है For Private & Personal Use Only - आव० निगा ५६६ /टीका www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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