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________________ १५४ वर्धमान जीवन-कोन इय वारह-विह-गणु उवविट्ठउ । हरे विट्ठरे ठिउ सहइ जिणेसर, भामंडल जुइणिज्जिय णेसरू। x x x एत्यंतरे णिण्णासिय मारवे अण उप्पज्जमाण दिव्वारवे । घता-तहो जिणणाहहो अवहिए मुणेवि गोतम-पासे तुरंतउ । गउ सुरवइ गणियाणण लइवि मउड-मणीहि फुरंतउ ॥ -वड ढमाणच० संधि १०/कड १ तब ध्यान रूपी अग्निज्वाला से गहन घातिया कर्म रूपी ईधन जलाकर सिद्धार्थ नरेन्द्र के उस स्तनन्धय-पुत्र (वर्षमान-महावीर) को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उस समय वे उत्तम दश अतिशयों को धारण कर सुशोभित हुए। इसी बीच में जब हरि-इन्द्र ने आदेश दिया तब यक्ष ने एक समवसरण की रचना की। वह १२ योजन प्रमाण विशाल बा। इस प्रकार १२ सभाओं में १२ प्रकार के गण (साधु-१, साध्वियाँ-२, भवनपति-वाणध्यंतर-ज्योतिषीवैमानिक देव-देवियाँ-३ से १०, मनुष्य-११ तथा तियंच-१२) उपविष्ट थे। भामंडल की युति से सूर्य को भी जीत लेने वाले जिनेश्वर सिंहासन पर बैठे हुए सुशोभित हो रहे थे। (किन्तु) उस समय जिननाथ को मिथ्यात्व एवं मार-कामनाशक दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी। तब मुकुट-मणियों से स्फुरायमान इन्द्र ने अपने अवधि ज्ञान से (उसका कारण) जाना और (विक्रिया ऋद्धि से) गणितानन-गणितज्ञ-देवज्ञ ब्राह्मण का वेष बनाकर वह तुरन्त ही गौतम के पास पहुँचा । सुरेन्द्र ने गौतम गोत्ररूपी नंभागण के लिए चन्द्रमा के समान तथा गुण-समूह के निवासस्थल उस इन्द्रभूति गौतम को देखा तथा उसे वह स्वयं ही ले आया, जहाँ कि स्वामी-जिन विराजमान थे। उस गौतम ने नत-शिर होकर जीव-स्थिति पर प्रश्न किया, जिसका उत्तर परमानन्द जिनेश्वर ने स्पष्ट किया। उस उत्पन्न दिव्यधवनि को उस गौतम ने समझ लिया, जिससे उस (गौतम) का सन्देह दूर हो गया। अपने ५०० विज पुत्रों के साथ मिलकर उस गौतम विप्र ने सब कुछ त्याग कर जिन-दीक्षा ले ली। उसी दिन अपराह्न में उस गौतम नामक ऋषि ने महावीर-जिन के मुख से निर्गत अर्थों से अलंकृत सांगोपांग द्वादशांग श्रुतपदों की रचना की। •७ तहिं अवलोएविणु गुण - गणहरु, गोत्तम गोत्तणहंगण - ससहरु । विप्पवडूव वेण सुरेंदें, मेरु महीहरे हविय जिणेंदें। सइँ वासवेण पुराणिउ तित्तहे, इंदभूइ जिणुसामिउँ जेत्तहे । माणथंभु अवलोएवि दूरहो विहडिउ माणु तमोहु व सूरहो । पणय - सिरेण तेण गय - माणे, गोत्तमेण महियले असमाणे । पुच्छिउ जीव - छिदि परमेसरु। पयणिय - परमाणंदु जिणेसरु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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