SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्णमान जीवन कोश श्रमण भगवान् महावीय महागोप है; क्योंकि श्रमण भगवान् महावीय संसाराटची में नाश को हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए, भक्षण करते हुए, छेदाते हुए, भेदाते हुए, लुप्त होते हुए बहुत से जीवों को (ग्रा तरह ) धर्म रूप दण्ड से संरक्षण करते हुए, संगोपन करते हुए निर्वाण रूप महाटवी में स्वयं के हाथ से पहुंचा देते विवेचन - महागोप - अर्थात् गोप-गाय का रक्षक और अन्य गाय की रक्षा करने की अपेक्षा विशिष्ट होने के कारण महान् है अतः महागोप है । १२२ ३ महासार्थवाह आगए देवाण पिया ! इह महासत्थवाहे ? के देवाण पिया ! महासत्यवाहे ? सद्दा समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे, से केण ेणं ? एवं खलु देवाणुप्पिया । समणे भगवं मह संसाराडवीए बहवे जीवेनस्समाणेविणस्समाणे जाव विलुप्पमाणे धम्ममएणं पन्थेणं सारक् निव्वाणमहापट्टणाभिमुहे साहत्थिं संपावेइ, से तेणटुणं सद्दालपुत्ता । एवं वुच्चइ- समणे महावीरे महासत्थवाहे । - उवा० अ० ७/ श्रमण भगवान् महावीय महासार्थवाह है; क्योंकि श्रमण भगवान् महावीर संसाराटवी में नाश को होते हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए यावत् विलुप्त होते हुए बहुत से जीवों को धर्ममय मार्ग से संरक्षण करते निर्वाण रूप महापट्टण - नगर के सन्मुख स्वयं के हाथ से पहुंचाते हैं । ४ महाधर्मकथ आगएणं देवाणुपिया । इह महाधम्मकही ? केणं देवाणुपिया । महाधम्मकही ? समणे महावीरे महाधम्मकही। से केणं णं xxx समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही ? एवं खलु दे पिया । समणे भगवं महावीरे महइमहालयंसि संसारंसि बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे माणे छिज्जमाणे भिज्जमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे उम्मग्गपडिवणे सप्पहविप्पण्टु मि लाभिभू अहिम्मतम पडलपडोच्छ बहूहिं अट्ठहिय जाव वागरणेहि य चाउरन्ताओ सं कन्ताराओ साहस्थि निस्थारेइ, से तेणटुणं देवाणुपिया ! एवं वुच्चइ - समणे भगवं महावीरे धमकी | - उवा० अ० / श्रमण भगवान् महावीर महाघमंकथी है; क्योंकि वास्तव में श्रमण भगवान् महावीर अत्यंत मोटे में नाश को प्राप्त होते हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए, भक्षण कराते हुए, छेदाते हुए, भेदाते हुए, लुप्त हुए, हुए उन्मार्ग को प्राप्त हुए, सन्मार्ग से भूले हुए, मिध्यात्व के बल से पराभव को प्राप्त हुए और आठ प्रकार के रूप अंधकार के समूह से ढके हुए बहुत जीवों को बहुत अर्थों, यावत् व्याकरण - उत्तर से चार गति रूप संस टवी से स्वयं के हाथ से पार उतारते हैं । इस प्रकार से हे देवानुप्रिय श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy