SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्धमान जीवन - कोश ११६ बालारागद्वेषाकलिताः स्वकृतेन कर्मणा पृथक्तया सर्वयोनि भोक्त ेन च कल्पिता व्यवस्था - पिता इति । × × ×1 किवच भगवं च इत्यादि भगवांश्चवीरवर्द्धमान स्वाम्येवमवगम्य ज्ञातवान् सह उपधिनावर्तत इति सोपधिकः द्रव्यभावोपधियुक्तः ज्हरवधारणे लुप्यत एव कर्म्मणो क्लेशमनुभवत्येवाज्ञो बाल इति, यदि तस्मात् सोपधिकः कर्मणा लुप्यते बालस्तस्मात्कर्म च सर्वशो ज्ञात्वा तत्कर्म्म प्रत्याख्यातवांस्तदुपादानं च पापकर्मानुष्टानं भगवान् वर्द्धमानस्वामीति । कर्मों के वशीभूत होकर स्थावर जीव ( पृथ्वो- अप्-तेजस - वायु-वनस्पत्तिकाय ) सरूप में द्वीन्द्रियादि जीव रूप में उत्पन्न होते हैं तथा सजीव - कुमी आदि भी पृथ्वी आदि स्थावर रूप में उत्पन्न होते हैं । जो जीव सर्वयोनि में उत्पन्न हुए है वे जीव सर्वयोनिक कहलाते हैं तथा वे सर्वयोनिक जीव भजना से सर्वगतियों में उत्पन्न हुए हैं । बाल-अज्ञानी जीव राग-द्वेष से युक्त होकर, अपने किये हुए कर्मों के अनुसार भिन्न २ योनियों में उत्पन्न होते हैं यह योन्यान्तर का कथन कोई कल्पित नहीं है तथा व्यवस्थित नहीं भजना से होता हैं । भगवान श्री बर्द्धमान स्वामी ने स्वयमेव स्वज्ञान से यह जान लिया था कि बाल अज्ञानी जीव द्रव्य और भाव रूप उपधि के कारण कर्म से लिप्त होकर ( एक योनि से अन्य योनि में जन्म लेता हुआ ) क्लेश को पाता है । कर्मों को सब प्रकार से कर्म और कर्मफल को सर्वप्रकार - सर्वथा उपादान जानकर भगवान ने कर्म और उसके कारण पाप का प्रत्याख्यान कर दिया । '१६ वर्धमान को चतुर्थ प्रहर में केवल ज्ञान की उपलब्धि (क) उग्गं च तवोकम्मं विसेसतो वद्धमाणस्स । अन्य सब तीर्थङ्करों की अपेक्षा महावीर के तपको उग्रतप कहा गया है । (ख) वैशाखे मासि सज्योत्स्नदशम्यामपराण्हके । - उत्तपु० पर्व / ७४ / श्लो० ३५० वैशाख शुक्ला दशमी के दिन अपराह्नकाल में वर्धमान को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । (ग) तेबीसाए नाणं उत्पन्नं जिणवराण पुब्वण्हे । वीरस्स पच्छिमण्हे पमाणपत्ताए चरमाए । २७५ ।। - आव० निगा० २७५ मलयटीका - त्रयोविंशति (तेः) जिनवराणां तीर्थंकृतां ज्ञानमुत्पन्नं पुर्वांहे, सूरोद्गमनमुहूर्त्ते इत्यर्थः' तथा चोक्त' चुर्णौ - " तेवीसाए तिल्थगराणं सुरुग्गमणमुहुत्ते एगराइयाए पडिमाए नाणमुत्पन्न मिति, वीरस्य भगवतः अपश्चिमतीर्थकृतः पश्चिमाण्डे, तत्रापि प्रमाणप्राप्तायां चरमायां पौरुष्यामिति, अन्ये त्वभिदधति - द्वाविंशतेः पूर्वान्हे ज्ञानमुत्पन्नं मल्लिस्वामिमहावीरयोः पुनरपराण्हे इति । बीस तीर्थंकरों को पुर्खाह - सूर्य के उद्गमन के समय में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तथा वर्धमान को पश्चिम प्रहर - चतुर्थ प्रहर में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । अन्य लोगों की यह मान्यता है कि बाइस तीर्थकरों को पूर्वान्ह में केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ तथा मल्लिनाथ व महावीर स्वामी को अपरान्ह में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । Jain Education International - आव० निगा २६२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy