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________________ १०२ वर्धमान जीवन-कोश घत्ता-पहुपंगणि तेत्थु वंदिय-चरम - जिणिदें । छम्मास विरहय रयणविट्ठि जक्खिंदें ।। ७ ।। -वीरजि० संधि १/कड ७ ऐसे उस राजभवन के प्रांगण में अन्तिम तीर्थ कर की बन्दना करने वाले उन यक्षों के राजा कुबेर ने छह मास तक रत्नों की दृष्टि की। (ख) तस्मिन्षण्मासशेषायुष्यानाकादागमिष्यति । भरतेऽस्मिन्विदेहाख्ये विषये भवनाङ्गणे ॥ २५१ ।। राज्ञः कुडपुरेशस्य वसुधारापतत्पृथुः। सप्तकोटिमणिः सार्धा सिद्धार्थस्य दिनं प्रति ।। २५२ ।। -उत्तपु० पर्व ७४ जब उसदेव की आयु छः मास की बाकी रह गयी और स्वर्ग से आने को उद्यत हुआ तब इसी भरत क्षेत्र के विदेह नामक देश सम्बन्धी कुण्डपुर नगर के राजा सिद्धार्थ के भवन के आंगन में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्नों की बड़ी मोटी धारा बरसने लगी। (ग) अथ सौधर्मकल्पेशो ज्ञात्वाच्युतसुरेशिनः। षण्मासावधिशेषायुः प्राहेति धनदं प्रति ।। ४२ ॥ पीदात्र भारते क्षेत्र सिद्धार्थनृपमन्दिरे। श्रीवर्धमानतीर्थेशश्चरमोऽवतरिष्यति ॥४३ ।। अतो गत्वा विधेहि त्वं रत्नवृष्टि तदालये। शेषाश्चर्याणि पुण्याय स्वान्यशर्माकराणि च ॥ ४४ ।। इत्यादेशं स यक्षेशो मूर्नादायामरेशिनः। द्विगुणीभूतसद्भाव आजगाम महीतलम् ।। ४५ ।। ततः प्रत्यहमारेभे मणिकाञ्चनवर्षणैः। रत्नवृष्टि मुदा कतु भूपधामनि सोऽमरः ।। ४६ ।। नानारत्नमयाधारा सैरावतकराकृतिः। पतन्ती श्रोरिवायान्त्यभात् पुण्यकल्पशाखिनः ।। ४७ ।। दीप्राहिरण्यमयी वृष्टिः पतन्ती खाङ्गणाद् बभौ ज्योतिर्मालेव सायान्ती सेवितु पितरौ गुरोः।४।। -वीरवर्धच अधि ७ सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने उक्त अच्युतेन्द्र की छह मास प्रमाण शेषायु को जानकर कुबेर के प्रति इस प्रकार कहा-हे धनद, इस भरतक्षेत्र में सिद्धार्थ राजा के राजमन्दिर में अन्तिम तीर्थ कर श्री वर्धमान स्वामी अवतार लेंगे, अतः तुम जाकर के उनके भवन में रत्नों की वृष्टि करो, तथा पुण्य प्राप्ति के लिए स्व-पर को सुख करने वाले शेष आश्चर्यों को भी करो । वह यक्षेश अमरेन्द्र के इस आदेश को शिरोधार्यकर द्विगुण हर्षित होता हुआ महीतल पर आया। तत्पश्चात् उस यक्षेश ने सिद्धार्थ राजा के भवन में प्रतिदिन मणिसुवर्ण बरसाते हुए हर्ष से रत्न वृष्टि आरंभ कर दी। ऐशावत हाथी की गुंड़ के समान आकारवालो नाना रत्नमयी वह धारा आकाश से गिरती हुई ऐसी शोभती थी, मानो पुष्परूपो कल्पवृक्ष से लक्ष्मी ही आ रही हो । गगनांगण से गिरती हुई वह देदीप्यदान हिरण्यमयी वृष्टि इस प्रकार शोभा दे रही थी मानो त्रिजगद्-गरु के माता-पिता की सेवा करने के लिए ज्योतिर्मय नक्षत्र माला ही आ रही हो। घ) प्राग्गर्भाधानतः षण्मासान्त सिद्धार्थमंदिरे। साधु कल्पद्र मोद्भूतपुष्पगंधाम्बुवृष्टिभिः ।। ४६ ।। रत्नवृष्टि चकारोच्चमहाय॑मणिकाञ्चनैः । धनदोऽनुदिनं भूत्या सेवया श्रीजिनेशिनः ।। ५० ।। -वीरवर्षच. अधि७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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