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________________ वर्षमान जीवन-कोश 88 इसी जम्बू नामक द्वीप के भरत नामक क्षेत्र में छत्र के आकारवाला, धर्म और सुख का भंडार एक रमणीक सुर नाम का नगर है। पुण्योदय से उसका स्वामी नन्दीवघंन नामका राजा था। उसकी पुण्यशालिनी वीरमती की रानी थी। उन दोनों के वह देव स्वर्ग से च्युत होकर नंद नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वह अपने सुन्दर रूप दि के द्वारा जगत को आनन्द करने वाला था । तत्पश्चात यौवनावस्था में लक्ष्मी के साथ पिता के राज्य को पाकर ( और अपनी स्त्रियों के साथ) दिव्य भोगों हर्ष से भोगता हुआ धर्म का आचरण करने लगा। । एक बास भव्यजनों से घिरा हुआ वह बुद्धिमान नंदराजा धर्म प्राप्ति के निमित्त से प्रोष्ठिल नामक योगीराज बन्दना के लिये भक्ति के साथ गया। वहाँ पर दिध्य अष्ट द्रव्यों से भक्तिपूर्वक मुनिश्वर की पूजा करके और वक से नमस्कार करके धर्म श्रवण करने के लिये उनके चरणों के समीप बैठ गया । सद् चितवन से दुगुने वैराग्य को प्राप्त होकर राजा ने उन्हीं योगीराज को गुरू बनाकर, दोनों प्रकार के परिगों को छोड़कर अनंत संसार-संतान के नाशक सिद्धि का कारण ऐसा मुनियों का सकल संयम परम शुद्धि से ग्रहण कर लिया। गुरु के उपदेश रूप जहाज से यह नन्द मुनि निःप्रमाद और उत्तम बुद्धि के द्वारा शीघ्र ही ग्यारह अङ्गरूप भूतनागर के पार को प्राप्त हो गया। वे मुनिराज तीथङ्कर की विभूति को देने वाली इन वक्ष्माण सोलह उत्तम भावनाओं का तीथङ्करों के गुणों में समर्पित चित होकर निरंतर मन, वचन, काय की शुद्धि से भावना भाने लगे। इस प्रकार तीर्थ कर को सद्विभूति को देनेवाली इन सोलह कारण भावनाओं की शुद्ध मन, वचन, काय से प्रतिदिन भावना करके उसके फलद्वारा तीर्थ कर नाम कम का शीघ बध किया। यह तीर्थ कर नाम कम अनन्त महिमा से संयुक्त है और तीन लोक में क्षोभ का कारण है। इस प्रकार जब वह नन्दन दुश्चर तप कर रहा था। तभी उसकी आयु मात्र एक मास की शेष रह गयी। उसो अवसर पर उसने तरंग विहिन स्थिरतर समुद्र की तरह अपने अंतरंग का शमन किया तथा विध्यागिरि के शिखर पर जिन पदों में अपना मन विनिवेशित ( संलग्न ) कर शिवपद में समर्पित कर दिया। नोट :-कहा जाता है कि श्रमण भगवान महावीर अपने पूर्वभव में (नंदराजा) थे-वहां ११ लाख-८१ हजार पासक्षमण कर गोथ कर गोत्र का उपार्जन किया। ३२ अच्युत स्वर्ग-प्राणत स्वर्ग का देव ३२.१ देवरुप में उत्पन्न क पुप्फत्तरे उववन्नो तओ चुओ माहणकुलम्मि । -आव० निगा ४५० उत्तरार्ध मलयटीका-x x ( नन्दननृपभवात् ) मृत्वा 'पुप्फ त्तरे उववन्नो' त्ति प्राणतकल्पेषु पुष्पोत्तरावंतसके विंशतिसागरोपमस्थितिर्देव उत्पन्न इति । ख) षष्टिं दिनान्नवशनं पालयित्वा समाहितः। पंचविंशत्यब्दलक्षपूर्णायुः सोऽममो मृतः ।। २६८ ॥ अथाधिप्राणतं पुष्पोत्तरनामनि विस्तृते । विमाने स उपपेदे शय्यायामुदपद्यतः ।। २६६ ।। -त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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