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________________ ७६ वर्धमान जीवन - कोश (ग) तत्राप्येन उपायच्चर्हि सादिक्र रकर्मभिः । तस्योदयेन सप्रापनिन्द्यां E - वीरच० अधि० ४ घ) रत्नप्रभां प्रविश्यैव प्रज्वलद्वह्निमाप्तवान् । दुःखमेकाब्धिमेयायुस्ततश्च्युत्वा पुनश्च सः ॥ १७० ॥ उत्तपु० पर्व ७४ (च) अविरय दुरियासउ पुणुवि हरि । गउ पढमणरइ करि पाउ मरि || - वडूमाणच० संधि ६ / कड ११ निरन्तर दुरिताशय वह हरि- त्रिपृष्ठ का जीव ( सिंह ) पापकारी कार्य करके पुन: प्रथम नरक में जा पहुँचा । . २२ क कतिपय तिर्यग् - मनुष्य भव में (क) x x x नरपसु तिरिअमणुएस्सु रत्नप्रभाव निम् ॥ ३ ॥ F - आव० निगा ४४८ का अंश मलय टीका — × × × ‘तिरियमणुसु' त्ति पुनः कतिचिद्भवग्रहणानि तिर्यङ्मनुयेषूत्पद्यxxx । (ख) सोऽथ तिर्यङ मनुष्यादिभवान् बभ्राम भूरिशः । - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १ / श्लो० १८३ / पूर्वार्ध भगवान महावीर का जीव सिंह भव से मरकर नरक ( प्रथम ) में उत्पन्न हुए और वहाँ से आकर कतिपय भव तिर्यञ्च और मनुष्य के किए । नोट :- दिगम्बर ग्रन्थों में इन तिर्यञ्च - मनुष्य भवों का इस प्रकार वर्णन है । • २३ सिंह के भव में - २४ सौधर्म स्वर्ग देव के भव में * २५ कनकोज्ज्वल राजा के भव में * २६ लांतक स्वर्ग देव के भव में - २७ हरिषेण राजा के भव में २३. सिंह के भव में (क) अनुभूय महादुःखमेकाब्ध्यन्तं ततोहि सः । च्युत्वा दुःकर्मबद्धात्मा द्वीपेऽस्मिन्नादिमे शुभे ॥ ४ ॥ भारते सिद्धकूटस्य प्राग्भागे हिमवगिरेः । सानावभून्मृगाधीशस्तीक्ष्णदंष्ट्रो मृगान्तकः ॥ ५ ॥ - वीरच० अधि ४ Jain Education International (ख) इय नरय- दुक्खाइँ सहिऊण तुहुँजाउ । खर- नहर - निद्दलिय करिकुंभ मयराउ || - वडूमाणच० संधि ६ / कड १३ (ग. द्वीपेऽस्मिन् सिन्धुकुटस्य प्राग्भागे हिमवगिरेः । सानावभून्मृगाधीशो ज्वलत्केसरभासुरः ॥ ७१ ।। - उत्तपु० पर्व ७४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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