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________________ बर्धमान जीवन - कोश ७१ चरोपनीततद्वार्ता ज्वलनज्वलिताशयः । विद्या त्रितयसंपन्नैर्विद्याधरधराधिपे ॥ १५६ ॥ युयुत्सया ।। १५७ ॥ रिपुनिष्ठुरः ।। १५८ ।। शरसंघातवर्षणैः ॥ १५६ ॥ महाबलौ । १६० ।। अध्वन्यैरभ्यमित्रीणैरायुधीयैर्भटैर्वृतः रथावर्ताचल प्रापदश्वग्रीवो तदागमनमाकर्ण्य चतुरंगबलान्वितः । प्रागेवागत्य तत्रास्थास्त्रिपृष्ठो क्रुध्वा तौ युद्धसंनद्धावृद्धतौ रुद्धभास्करौ । स्वयं स्वधन्वभिः सार्धं अश्वे रथैर्गजेन्द्रश्च पदातिपरिवारितैः । यथोक्तविहितन्यू है रयुध्ये तां गजः कण्ठीरवेणेव वज्रणेव महाचलः । भास्करेणान्धकारोवात्रिपृष्ठेन पराजितः || १६१ ।। स विक्षो हयग्रीवो मायायुद्धेपि निर्जितः । चक्र संप्रेषयामास तत्तं प्रदक्षिणोकृत्य मङक्ष तदक्षिणे भुजे । तस्थौ सोऽपि तदादाय रिपुं खण्डद्वयं हयग्रीवग्रीवां सद्यो व्यधाददः । त्रिखंडाधिपतित्वेन त्रिपृष्ठ + + (छ) घत्ता - करे कलेवि चक्कु विजयाणुवेण णेमिचंद कुंदुज्जलु । इतिहो सिसचक्कें खुडिउउच्छलंत सोणियजलु । त्रिपृष्ठमभिनिष्ठुरम् ।। १६२ ।। प्रत्यक्षिपत् क्रुधा ।। १६३ ।। चार्ध चक्रिणम् ॥ १६४ ॥ - उत्तपु० पर्व ७४ - वडूमाणच० संधि ५ / कड २३ भरत क्षेत्र के विजयार्थं पर्वत को उतर श्रेणी में अलकापुर नाम के नगर में मयूरग्रीव (मोरवंठ) नामका राजा राज्य करता था । उसकी रानी निलांजना ( कनकमाला ) थी । वह विशाखनन्द चिरकाल तक संसार सागर में परिभ्रमण कर पुण्य के विपाक से स्वर्ग में गया । और फिर वहाँ से चयकर उक्त राजा-रानी के अश्वग्रीव नाम का बुद्धिमान्, त्रिखंड की लक्ष्मी से मंडित, देवों से सेव्य प्रतापी, भोग में तत्पर, अर्धचक्री ( प्रतिनारायण ) पुत्र उत्पन्न हुआ । Jain Education International + त्रिपृष्ठ वासुदेव का विवाह विजयार्थ पर्वत की उत्तर श्रेणी में यथनूपुरचक्रवाल नाम की नगरी के ज्वलनजटी की पुत्री स्वयंप्रभा के साथ हुआ— बात के श्रवण रूप अग्नि से प्रज्वलित हुआ। वह नरपति अश्वग्रीव शीघ्र ही विद्याधरों से और सेना से संयुक्त होकर तथा चक्ररत्न आदि से अलंकृत होकर युद्ध के लिए रथमपुर के पवंश पर आया । उसका आगमन सुनकर चतुरंगिणी सेना से युक्त हो अपने भाई विजय के साथ त्रिपृष्ठ पहले से ही वहाँ पर आकर ठहर गया । तत्पश्चात् अद्भूत युद्ध में भावी चक्रवर्ती त्रिपृष्ठ ते विद्योपनत मायाबी एवं अन्य शस्त्रास्त्रों के द्वारा अति पराक्रम से अश्वग्रीव को जीत लिया। तब आसन्नमृत्यु उस अश्वग्रीव ने पापोदय से क्रोधित होकर चक्ररत्न को निष्ठुरता पूर्वक त्रिपृष्ठ ऊपर चलाया। वह चक्ररत्न त्रिपृष्ठ को प्रदक्षिणा देकर पुण्योदय से उसको दाहिनी भुजा पर आकर विराजमान हो गया । तब त्रिपृष्ठ ने तोनखण्ड की लक्ष्मी को वश में करने वाले और शत्रुओं के लिए भयंकर उस चक्र को शीघ्र लेकर निष्ठुर हृदय होके क्रोध से अपने शत्रु को लक्ष्य करके फेंका। रौद्रपरिणामी कुबुद्धि अश्वग्रीव भी उस चक्र के द्वारा मरण को प्राप्त होकर तथा बहुत आरम्भ परिग्रहादि के द्वारा पूर्व में नरका के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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