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________________ पुद्गल-कोश २५५ है कि परमाणु परमाणु भाव में रहता हुआ सकंपता से निश्चल होकर पुनः सकंपता को प्राप्त करता है इसमें जो काल लगता है वह सकंप परमाणु का स्वस्थान अन्तर काल है । सकंप परमाणु का परस्थान की अपेक्षा ( सकंपता ) अन्तर काल जघन्य एक समय का तथा उत्कृष्ट असंख्यात काल का होता है । यहाँ पर स्थान से अभिप्राय है कि सकंप परमाणु निश्चलता को प्राप्त कर द्विप्रदेशादि स्कंध में अन्तर्भाव होकर जब वह उस स्कंध से निकल कर पुन: परमाणु भाव को प्राप्त कर सकंपता को प्राप्त करता है इसमें जो काल लगता है वह सकंप परमाणु का पर स्थान अन्तरकाल है । निष्कंप परमाणु का स्वस्थान की अपेक्षा ( निष्कंपता ) अन्तर काल जघन्य एक समय का तथा उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यात भाग का होता है । यहाँ स्वस्थान से अभिप्राय है कि परमाणु परमाणु भाव में रहता हुआ निष्कंपता से सकंप होकर पुनः निष्कंपता को प्राप्त करता है इसमें जो काल लगता है वह निष्कंप परमाणु का स्वस्थान अंतरकाल है । निष्कंप परमाणु का परस्थान की अपेक्षा ( निष्कंपता ) अंतरकाल जघन्य एक समय का तथा उत्कृष्ट असंख्यात काल का होता है । यहाँ परस्थान से अभिप्राय है । कि निश्चल परमाणु चलित होकर द्विप्रदेशी स्कंधादि में अंतर्भूत होकर जब उस स्कंध से निकलकर पुन: परमाणु भाव को प्राप्त कर निश्चल होता है - इसमें जो काल लगता है वह निष्कंप परमाणु का परस्थान अंतरकाल है । निश्चल परमाणु पुद् गल निश्चलता के स्थान से चलित होकर द्विप्रदेशादि स्कंध में अन्तर्भूत होकर – एक समय वहाँ स्थिर रहकर फिर बाहर निकल कर पुनः परमाणु भाव को प्राप्त कर निश्चल होता है वह निश्चल परमाणु का पर स्थान की अपेक्षा जघन्य अंतरकाल होता है । इसी प्रकार निश्चल परमाणु पुद्गल का पर स्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट – असंख्यात काल का अंतर काल होता है । - कंपद्विप्रदेशी स्कंध का स्वस्थान की अपेक्षा ( सकंपता ) अंतरकाल जघन्य एक समय का तथा उत्कृष्ट असंख्यात काल का होता है । यहाँ स्व स्थान से अभिप्राय है कि द्विप्रदेशी स्कंध भाव में रहता हुआ सकंपता से निश्चल होकर पुनः कंपता को प्राप्त करता है इसमें जो काल लगता है वह सकंप द्विप्रदेशी स्कंध का अनंत काल का होता है । यहाँ परस्थान से अभिप्राय है कि द्विप्रदेशी स्कंध चलित होकर अन्य पुद्गलों से सम्बन्ध स्थापित कर जघन्य एक समय उनके साथ रहकर फिर पृथग् होकर चलित होता है तथा उत्कृष्ट अनंतकाल तक भिन्न-भिन्न पुद्गलों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016030
Book TitlePudgal kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1999
Total Pages790
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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