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________________ ( 70 ) भाव से नपुंसक द्रव्य से पुरुष और भाव से स्त्री द्रव्य से पुरुष के प्रमत्त संयत में आहारक आहारक मिश्र काय योग का आलाप नहीं होता है । और योग रहित जीव है । ' पन्द्रह योग वाले जीव है केवलज्ञान सयोगी, अयोगी और सिद्धों में होता है। मनःपर्यव ज्ञानी व चक्षुदर्शनी अनाहारक नहीं होते है अतः कार्मण काय योग भी नहीं होता है । चूँकि देव अर्धमागधी भाषा बोलते हैं - ऐसा भगवई श० ५ ७४ में कहा है। इसी सूत्र में कहा है कि केवली प्रकृष्ट मन और वचन को धारण करते हैं। उस प्रवृष्ट मनमनोवर्गणा के पुद्गलों को कितनेक वैमानिक देव जानते हैं, देखते हैं । प्रवृत्ति में मनोवगणा के पुद्गल सहायक होते हैं 1 चूँकि मनोयोग की अनुत्तरोपातिक देव ( अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए ) अपने स्थान पर रहे हुए ही यहाँ रहे हुए केवली के साथ आलाप-संलाप करने में समर्थ है। उन देवों को अनंत मनोवर्गणान्ध है, प्राप्त है – अभिसमन्वागत है अतः यहाँ रहे हुए केवली महाराज द्वारा कथित अर्थादि को यहाँ रहे हुए ही जानते हैं, देखते हैं । उनके अवधि ज्ञान का विषय संभिन्न लोकनाड़ी है । (लोकनाड़ी से कुछ कम ) जो अवधिज्ञान लोकनाड़ी का ग्राहक होता है, वह मनोवर्गणा को जानने वाला होता ही है। चूँकि वह अवधिज्ञान मनोद्रव्य को जानता है, देखता । वे देव मन से केवली को प्रश्न पूछते हैं केवली मन से उसका उत्तर देते हैं । केवली भगवान के वीर्य प्रधान योग वाला जीव द्रव्य होता है। इससे उनके हाथ आदि अंग चलायमान होते हैं। हाथ आदि अंगों के चलित होने के कारण वर्तमान समय में जिन आकाश प्रदेशों को अवगाहित कर रखा है, उन्हीं आकाश प्रदेशों पर भविष्यत् काल ये केवली भगवान हाथ आदि से अवगाहित नहीं कर सकते हैं । अतः केवली भी अस्थिर योग वाले है । वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होनेवाली शक्ति को 'वीर्य' कहते हैं । वह वीर्यं जिन मानस आदि व्यापारों में प्रधान हो - ऐसे जीव द्रव्य को वीर्य - सयोग जइद्रव्य कहते हैं । वीर्य का सद्भाव होने पर भी योगों के व्यापार के बिना चलन नहीं हो सकता है । वीर्यप्रधान मानसादि योग युक्त आत्म द्रव्य को वीर्यं सयोग स्वद्रव्य कहते हैं । अथवा वीर्यप्रधान योग वाला और मनादिवर्गणा से युक्त जो हो, उसे वीर्य सयोग सद्रव्य कहते हैं । कहा है- " वीरिय-सजोग - सद्दव्वदाए ।" वीर्य सयोग सद्रव्यता के कारण केवली भगवान के अंग अस्थिर होते हैं । अतः उन्हीं आकाश प्रदेशों पर वे अपने अंगादि को भविष्यत् काल में नहीं रख सकते हैं अतः कतिपय आचार्यों की मान्यता है कि केवली के उपचार से प्रकृष्ट भाव मन तथा द्रव्य मनोयोग दोनों होते हैं । १ गोजी० पृ० ६४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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