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________________ ( 68 ) अर्थात् जिनको जितना कठिन है, ऐसे रागद्वेषादि वैरियों के समूह को निवारण करने वाले चार घाति-कर्मों का नाश करने वाले, योगियों के नाथ और प्राणी मात्र के संरक्षक भगवान महावीर को नमस्कार हो । पातञ्चल योग शास्त्र में कहा है "योगश्चित्त वृत्ति निरोधः” चित्त वृत्ति का निरोध ही योग है। चित्त वृत्ति के निरोध के लिए साधन रूप अष्टांग योग बताये है। "यमनियमासन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधयोऽष्टा बङ गानि" यमनियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि ये अष्टांग योग है। .. अहिंसा सर्व श्रेष्ठ धर्म है । - भगवान् शांतिनाथ ने मेघराजा के भव में एक कबूतर को जान बचाने के लिए अपने प्राणों की परवाह नहीं की। भगवान् अरिष्टनेमि ने प्राणियों की रक्षा के लिए अपनी बारात लौटा ली। भगवान् पाश्वनाथ ने नाग-नागिन के जोड़े को जलने से बचाया। मेतार्य मुनि ने एक मुर्गी की जान बचाने के लिए प्राणों की आहुति दे दी। जैन इतिहास दयालुता और अहिंसा के दृष्टान्तों से भरा पड़ा है । अयोग संवर-संवर के बीस भेद होते हैं जिसमें अयोग संवर पाँचवाँ है । सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और अयोग-इन पाँच संवरों के अतिरिक्त जो पन्द्रह भेद है वे व्रत संवर के ही हैं । अप्रमाद, अकषाय, अयोग-ये तीन संवर परित्याग करने से नहीं होते है, किन्तु तपस्यादि साधनों के द्वारा आत्मिक उज्ज्वलता से ही होते है। आचार्य भिक्ष ने कहा है प्रमाद आस्रव ने कषाय योग आस्रव, ये तो नहीं मिटे, कियां पच्चक्खाण । ये तो सहजे मिटै छ कर्म अलग हुआ, तिण री अंतरंग कीजो पहिचान । -नवपदार्थ संघर, ढाल १ । गा ६ अस्तु प्रवृत्ति करना योग आस्रव है अतएव पन्द्रह आस्रव-योग आस्रव के अन्तर्गत होते हैं। उन पन्द्रह आस्रवों का प्रत्याख्यान करने से अत्याग-भावना रूप अवत आस्रव का निरोध होता है अतः व्रत संवर होता है। शुभ-अशुभ योग का निरोध-सर्वथा होने से अयोग संघर होता है । अपेक्षारष्टि से आंशिक रूप से अयोग संवर हो भी सकता है पर वह अयोग संवर का अंश कहलाता है, अयोग संवर नहीं । आठ आत्मा में एक योग आत्मा है। आत्मा जीव का पर्यायवाची शब्द है। द्रव्य आत्मा और जीव का एक ही अर्थ है। जीव का मन, वचन और काय-इन तीन का योगमय परिणति को योग आत्मा कहते हैं। अभव्य जीव के योग आत्मा अनादि अनंत है अतः शाश्वत भाव है। अपेक्षा रष्टि से द्रव्य आत्मा शाश्वत है योग आदि सात आत्मा अशाश्वत है। योग आत्मा में द्रव्य आत्मा दर्शन आत्मा, उपयोग आरमा तथा वीर्य आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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