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________________ ( 39 ) ६ से १६ विमलनाथ के उत्तराभाद्रपद में, अनंतनाथ के रेवती में, धर्मनाथ के पुष्य नक्षत्र में, शान्तिनाथ के भरणी नक्षत्र में, कुंथुनाथ के कृतिका नक्षत्र में, अरनाथ के रेवती नक्षत्र में, मुनिसुव्रत के श्रवण नक्षत्र में तथा नमिनाथ के अश्विनी नक्षत्र में पाँचों कल्याण हुए । ( ठाणांग ५ ) १७-१८ नेमिनाथ के चित्रा नक्षत्र में तथा पार्श्वनाथ के विशाखा नक्षत्र में पाँचों कल्याण हुए। ( ठाणांग ५, कप्प०, उत्तरपुराण ) | वह है योग और लेश्या में भिन्नता प्रदर्शित करने वाला एक और विषय है । वेदनीय कर्म का बंधन । सयोगी जीव के प्रथम दो भंग से अर्थात् (१) बाँधा है, बाँधता है व बाँधेगा (२) बाँधा है, बाँधता है, बांधेगा नही-से वेदनीय कर्म का बंधन करता है । लेकिन सलेशी जीव इन दो भंगों के अतिरिक्त चतुर्थ भंग (४) बाँधा है न बाँधता है, न बाँधेगा है, से वेदनीय कर्म का बंध करता है । सलेशी ( शुक्ललेशी - सलेशी ) के चतुर्थ भंग से वेदनीय कर्म का बंधन शोध का विषय है। फिर भी मूल पाठ में ( भग० श २६ । १) यह बात है । टीकाकार का कहना है कि "सलेशी जीव पूर्वोक्त हेतु से तीसरे भंग को बाद देकर अन्य भंगों से वेदनीय कर्म का बंधन करता है लेकिन उसमें चतुर्थ भंग घट नहीं सकता है क्योंकि चतुर्थ भंग लेश्यारहित अयोगी को ही घट सकता है । लेश्या तेरहवें गुणस्थान तक होती है तथा वहाँ तक भावलेश्या से बंध होता रहता है । कई आचार्य इसका इस प्रकार समाधान करते हैं कि इस सूत्र के वचन से अयोगीत्व के प्रथम समय में घण्टा लाला न्याय से परम शुक्ल लेश्या संभव है तथा इसी अपेक्षा से सलेशी शुक्ललेशी जीव के चतुर्थ भंग घट सकता है । तत्त्व बहुतगम्य है ।” हमारे विचार से इसका एक यह समाधान भी हो सकता है कि लेश्या परिणामों की अपेक्षा अलग से वेदनीय कर्म का बंधन होता है तथा योग की अपेक्षा अलग वेदनीय कर्म का बंधन होता है तब तेरहवें गुणस्थान में कोई एक जीव ऐसा हो सकता है जिसके लेश्या की अपेक्षा से वेदनीय कर्म की बंधन रुक जाता है लेकिन योग की अपेक्षा से चालू रहता है। ध्यानावस्था में एक सीमा तक अवचेतन मन सक्रिय रहता है । मन अर्थात् मनोयोग । चेतन मन की जागृति में अवचेतन मन प्रायः सोया रहता है। आचार्य हरिभद्र ने योगशतक के बारहवें अध्याय में कहा है - ध्यान में श्वास, सम्बन्ध में अनुभूतियाँ करता है-आदि-आदि । ध्यान से ध्यान भी एक महान कार्य है, जो शारीरिक, मानसिक तथा जमाव पर निर्भर है । इन्द्रिय, मन और चित्त के योग की चंचलता मिटती है आध्यात्मिक शक्तियों के सघन नोट- वासुपूज्य का जन्मनक्षत्र शतभिषा लिखा है ( पउम चरिय ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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