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________________ ( २८८ ) टीका - अत्र सामान्यवाक्काय योर्विवक्षितत्वात् द्वीन्द्रियादिर्भवत्य संहिनश्च पर्यवसानम् । विशेषे तु पुनरवलम्ब्यमाने तुरीयस्यैव वचनः सत्त्वमिति । तदाद्यन्तव्यवहारो न घटामटेत्, उपरिष्टादपि वाक्काययोगौ विद्येते ततो नासंज्ञिनः पर्यवसानमिति चेन्न, उपरि त्रयाणामपि सत्त्वात् । अस्तु चेन्न, निरुद्धद्विसंयोगस्य त्रिसंयोगेन सह विरोधात् । वचनयोग और काययोग द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक होते हैं । यहाँ पर सामान्य वचन और काय योग की विवक्षा है अतः द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक दोनों योग पाये जाते हैं। विशेष अवलम्बन करने पर द्वीन्द्रिय से असंज्ञी तक वचनयोग के चौथे भेद ( अनुभय वचन ) का ही सद्भाव समझना चाहिए । उपर्युक्त दो योगों का द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सद्भाव बताया गया है और इसमें आदि-अन्त का भी व्यवहार किया गया है, सो तो इससे आगे के जीवों में भी वचनयोग और काययोग का सद्भाव रहता है; फिर यहाँ 'असंज्ञी पर्यन्त' कथन का तात्पर्य यह है कि आगे के जीवों में तीनों योगों का सद्भाव अविनाभाव रूप से रहता है । यदि ऊपर के जीवों में तीनों योगों का सद्भाव रहता है तो रहे किन्तु इन दो योगों के कथन न करने का अभिप्राय यह है कि द्विसंयोगी योग का त्रिसंयोगी योग के साथ कथन करने में विरोध आता है ! .१८ मणजोगो बचिजोगो पजत्ताणं अस्थि, अपजत्ताणं णत्थि । षट् ० ० खं० १ । १ । सू ६८ । १ । पृ० ३१० टीका- क्षयोपशमापेक्षया अपर्याप्तकालेऽपि तयोः सत्त्वं न विरोधमारकन्देदिति चेन्न, वाङ्मनोभ्यामनिष्पन्नस्य तद्योगानुपपत्तेः । पर्याप्तानामपि विरुद्धयोगमध्यासितावस्थायां नास्त्यैवेति चेन्न, सम्भवापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात्, तच्छत्तिसत्त्वापेक्षया वा । सर्वत्र समुच्चयार्थावद्योतक-व- शब्दाभावेऽपि समुच्चयार्थः पदै रेषावद्योत्यत इत्यवसेयः । मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तों में होते हैं तथा अपर्याप्तों में नहीं होते हैं । क्षयोपशम की अपेक्षा से अपर्याप्त काल में भी वचनयोग औप मनोयोग का सद्भाव रहना विरुद्ध नहीं माना जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं हैं, क्योंकि जो क्षयोपशम वचनयोग और मनोयोग से उत्पन्न नहीं होता है उसको योग कहा नहीं जाता है। जिस प्रकार अपर्याप्त अवस्था में मनोयोग और वचनयोग नहीं होते हैं उसी प्रकार पर्याप्त अवस्था में भी किसी एक योग के रहने पर अन्य दो योगों का अभाव स्वीकार करना चाहिए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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