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________________ ( १४५ ) विवेचन-मन, वचन और काय के व्यापार को 'योग' कहते हैं। वीर्यान्तराय के क्षय या क्षयोपशम से मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के पुद्गलों का आलम्बन लेकर आत्मप्रदेशों में होने परिस्पन्द-कम्पन या हलन-चलन को भी 'योग' कहते है। इसी योग को 'प्रयोग' भी कहते हैं। __ मनोयोग में केवल विचार मात्र का ग्रहण होता है और वचनयोग में वाणी का ग्रहण है, अर्थात् भावों को वचन द्वारा प्रकट करना । औदारिक आदि काययोग के द्वारा मनोवर्गणा के द्रव्यों से ग्रहण करके उन्हें मनोयोग द्वारा मनपने परिणमाए हुए पुद्गल 'मनःप्रयोग-परिणत' कहलाते हैं। औदारिक आदि काययोग द्वारा भाषा द्रव्य को ग्रहण करके वचनयोग द्वारा भाषा रूप में परिणत करके बाहर निकाले जाने वाले पुद्गल 'वचनप्रयोग परिणत' कहलाते हैं। औदारिक आदि काय योग द्वारा औदारिकादि वर्गणा द्रव्य को औदादिकादि शरीर रूप से परिणत हुए पुद्गल 'काययोग-परिणत' कहलाते हैं । जीवहिंसा को 'आरम्भ कहते है। हिंसामें मनःप्रयोग द्वारा परिणत पुद्गल ‘आरम्भसत्यमनः प्रयोग परिणत' कहलाते हैं। इसी तरह दूसरों के स्वरूप को भी समझ लेना चाहिए, परन्तु इतनी विशेषता है कि जीव-हिंसा के 'अभाव को अनारम्भ' कहते हैं । किसी जीव को मारने के लिए मानसिक संकल्प करना सारंभ (सरम्भ) कहलाता है । जीवों को परिताप उपजाना समारम्भ कहलाता है। जीवों को प्राण से रहित कर लेना' 'आरम्भ' कहलाता है। .०२ काययोगी और एक द्रव्य-परिणाम जइ कायप्पयोगपरिणए कि ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए, ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए, वेउब्धियसरीरकायप्पयोगपरिणए, वेउब्धियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए, आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए, आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए वा, जाप कम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए वा। -भग° श घाउ १०प्र० ३४ ___ यदि एक द्रव्य काययोग-परिणत होता है, तो वह औदारिक शरीर काययोग-परिणत होता है, अथवा औदारिक मिश्रकाययोग-परिणत होता है, अथवा वैक्रिय शरीर काययोगपरिणत होता है, अथवा वेक्रिय मिश्र शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा आहारक शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है, अथवा आहारकमिश्र काय प्रयोग-परिणत होता है, अथवा कार्मण शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है। __विवेचन-काय की प्रवृत्ति को काययोग कहते हैं। इसके सात भेद है । औदारिक काययोगादि । काय का अर्थ है 'समूह' । औदारिकशरीर-पुद्गल स्कंधों का समूह है, इसलिए काय है। इससे होने वाले व्यापार से 'औदारिक शरीर काययोग कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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