SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३७ ) अचित्त द्रव्यस्थान दो प्रकार का है- रूपी अचित्तद्रव्यस्थान और अरूपी अचित्तद्रव्यस्थान । रूपी अचित्तद्रव्यस्थान दो प्रकार का है -- आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर रूपी अचित्त द्रव्यस्थान दो प्रकार का हैं-जहद्वृत्तिक और अजहद्वृत्तिक । जहद्वृत्तिक आभ्यन्तर रूपी अचित्तद्रव्यस्थान कृष्ण, नील, रुधिर, हारिद्र, शुक्ल, सुरभिगन्ध, दुरभिगन्ध, तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल, मधुर, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और ऊष्ण आदि भेद से अनेक प्रकार का है । अजहद्वृत्तिक आभ्यन्तर रूपी अचित्त द्रव्यस्थान पुद्गल के मूर्तत्व, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और उपयोगहीनता आदि भेद से अनेक प्रकार का है । बाह्य रूपी अचित्तद्रव्यस्थान के एक आकाशप्रदेश आदि असंख्यात भेद हैं । अरूपी अचित्त द्रव्यस्थान दो प्रकार का है - आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर अरूपी अचित्त द्रव्यस्थान धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तथा काल द्रव्यों के अपने स्वरूप में अवस्थान के हेतुभूत परिणामस्वरूप है । बाह्य अरूपी अचित्त द्रव्यस्थान धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल द्रव्य से व्याप्त आकाशप्रदेश स्वरूप है । स्तिकाय का बाह्य स्थान नहीं है, क्योंकि आकाश को स्थान देनेवाले दूसरे द्रव्य का अभाव । मिश्र द्रव्यस्थान लोकाकाश रूप है । आकाशा भावस्थान आगम और नोआगम भेद से दो प्रकार का है । आगम भावस्थान स्थानप्राभृत के ज्ञाता उपयोग युक्त जीव को कहते हैं। नोआगम भावस्थान औदयिक आदि भेद से चार प्रकार का है। यहाँ पर औदयिक भावस्थान का अधिकार है, क्योंकि योग की उत्पत्ति तत्प्रायोग्य अघाती कर्मों के उदय से होती है । कुछ आचार्य योग को क्षायोपशमिक भी मानते हैं, उसका कारण यह है कि कहीं पर वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से योग की वृद्धि को पाकर उसको क्षायोपशमिक प्रतिपादन किया गया है । योग का स्थान - योगस्थान । योगस्थान की प्ररूपणा - योगस्थानप्ररूपणा | योग स्थानप्ररूपणा के दस अनुयोगद्वार हैं । यहाँ योगप्ररूपणा करने का कारण यह है कि पूर्वोक्त अल्पबहुत्व प्रकरण में सब जीव समासों के जघन्य और उत्कृष्ट योगस्थानों का ही अल्पबहुत्व बतलाया गया है, किन्तु कितने अविभागप्रतिच्छेदों, स्पर्द्धकों अथवा वर्गणाओं के द्वारा जघन्य और उत्कृष्ट स्थान होते हैं, यह नहीं कहा गया है । योगस्थानों के छः ही अन्तर अल्पबहुत्व में कहे गये हैं, जिससे जाना जाता है कि अन्य स्थानों में उनकी निरन्तर वृद्धि होती है । किन्तु वह वृद्धि सब स्थानों में अवस्थित है या अनवस्थित तथा वृद्धि का प्रमाण नहीं कहा गया है, अतः इन अप्रकाशित अर्थों के प्रकाशनार्थ योगस्थान की प्ररूपणा की जाती है । .०९.७ द्रव्ययोग और स्थान णाम-वण- दग्व-भावभेदेण हाणं चउन्विहं । णाम-टुवणट्ठाणाणि सुगमाणि त्ति मित्थो ण वुच्चदे । दव्वद्वाणं दुविहं आगम-णोआगमभेदेणं । तत्थ आगमदो बट्टाणं द्वाणपाहुडजाणओ अणुबजुत्तो । गोआगमदव्वद्वाणं तिविहं जाणुगसरीर For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy