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________________ .०९.०३ मनोयोग का मूलकारण मणवयणाणं मूलणिमित्तं खलु पुण्णदेहउदभो दु । मोसुभयाणं मूलणिमित्तं खलु होदि आवरणं ॥ - गोजी० गा २२६ ( सत्य ) और ( अनुभय ) मनोयोग का मूलकारण (पर्याप्ति ) और शरीर नामकर्म का उदय है । मृषा और उभय मनोयोग का मूलकारण जीव का आवरण कर्म है । .०९.४ वचनयोग का मूल कारण ( १३४ ) मणवयणाणं मूलणिमित्तं खलु पुण्णदेहउदओ दु । मूलणिमित्तं मोसुभयाणं होदि आवरणं ॥ ( सत्य ) और ( अनुभय ) वचनयोग का मूलकारण ( पर्याप्ति ) और शरीर नामकर्म का उदय है । मृषा और उभय वचनयोग का मूल कारण जीव का आवरण कर्म है । .०९.५ वैक्रियकाययोग की संभावना बादरतेऊबाऊपंचिदियपुण्णगा षिगुव्वंति । ओरालियं सरीरं विगुण्षणप्पं हवे जेसिं ॥ योगिकेवली के मनोयोग की सम्भावना बादर तेजस्कायिक, वायुकायिक तथा संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय भी विक्रिया करते हैं, इसलिए इनका भी औदारिक शरीर वैक्रिय होता है । मणसहियाणं वयणं दिट्ठ तप्पुव्वमिदि मणोवयरेणिदिणाणेण उत्तो अंगोवं गुदयादो मणवग्गणखंधाणं Jain Education International - गोजी० गा २२६ दव्वमण' आगमणादो दु - गोजी० गा २३२ सजोगाम्हि । हि ॥ जिदिचंदहि | मणजोगो "I For Private & Personal Use Only मन से युक्त जीवों में वचन प्रयोग मनःपूर्वक ही देखा जाता है, अतः इन्द्रियज्ञान से रहित सयोगिकेवली के भी उपचारवश मन कहा गया है । अंगोपांग नामकर्म के उदय भगवान् जिनेन्द्र के हृदय स्थान में विकसित अष्टदल ( कमल) के आकार का द्रव्यमन होता हैं । इस द्रव्यमन के कारणभूत मनोवर्गणा के स्कन्धों का सयोगिकेवली में आगमन होता है, अतः उपचार से मनोयोग का अस्तित्व माना गया है । - गोजी ० गा २२७-२८ www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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