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________________ ( १२१ ) तथेहापि जीवप्रदेशेषु परिस्पन्दात्मकं बीर्यमुपजायमानं कार्यद्रव्याभ्याशवशतः केचित्प्रभूतमन्येषु मन्दमपरेषु तु मन्दतमं भबति । एतच्चैचं जीव प्रदेशानां परस्पर सम्बन्धविशेषे सति भवति, नान्यथा, यथा श्रृंखलावयवानां । तथाहितेषां शृंखलावयवानां परस्परं सम्बन्धविशेषे सति एकस्मिन्नबयवे परिस्पन्दमानेऽपरेऽप्यवयवाः परिस्पन्दन्ते । केवलं केचित् स्तोकमपरे स्तोकतरमिति । सम्बन्ध विशेषाभावे त्वेकस्मिन् चलति नापरस्यावश्यंभावि चलनं, यथा गोपुरुषयोः, तस्मात् कार्यद्रव्याभ्याशवशतो जीवप्रदेशानां परस्परं सम्बन्धविशेषतश्चवीर्यं जीवप्रदेशेषु केषुचित्प्रभूतमन्येषु स्तोकमपरेषु स्तोकतरमित्येव वैषम्येणोपजायमानं न विरुध्यत इति । इस योग नामक वीर्यविशेष के द्वारा औदारिकादि शरीर के प्रयोजन होने योग्य पुद्गलों को प्रथमतः ग्रहण करता है और उन पुद्गलों को ग्रहण कर औदारिकादि शरीर रूप से परिणमन करता है । फिर, प्राणापान, भाषा और मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर प्राणापानादि रूप से परिणमन करता है, और परिणमन कर उसके निसर्ग हेतु सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए उन्हीं पुद्गलों का अवलम्बन करता है । यथा- - कोई मन्दशक्ति मनुष्य नगर में घूमने के लिए डंडे का सहारा लेता है उसी प्रकार उन पुद्गलों के अवलम्बन से सामर्थ्य - विशेष प्राप्त कर उन प्राणापानादि पुद्गलों का विसर्जन करता है - यह परिणमन और आलम्बन के ग्रहण का साधनभूत वीर्य है। यह मन, वचन और काय के अवलम्बन से उत्पन्न होनेवाला योग नाम का वीर्य तीन नाम धारण करता है - मनोयोग, वचनयोग और काययोग | मन के द्वारा होनेवाला मनोयोग है, वचन के द्वारा होनेवाला वचनयोग है और काय के द्वारा होनेवाला काययोग है। यह तो ठीक है । किन्तु — सारे जीवप्रदेशों में क्षायोपशमिक लब्धि भाव तो तुल्य रूप से होता है, परन्तु लाभ कहीं अधिक, कहीं अल्प तथा कहीं अल्पतर होता है - ऐसा क्यों ? जिसके लिए चेष्टा होती है वह कार्य है उसका अभ्यास अर्थात योग के द्वारा उसकी निकटता प्राप्त होती है। जीवप्रदेशों की रचना श्रृंखला की तरह एक दूसरे से सम्बद्ध है। जिस प्रकार विषम रूप से अर्थात् अधिक, अल्प और अल्पतर रूप से जिस जीववीर्य के द्वारा जीब प्रदेशों का भार शृंखला पर पड़ता है वह उस कार्य की निकटता के द्वारा परस्पर प्रवेश के कारण होता है, उसी प्रकार जिन हस्तादि आत्मप्रदेशों के द्वारा उठाये जाने वाले घटादि रूप कार्य की निकटता रहती है उनमें अधिक चेष्टा रहती है, उससे कुछ दूरस्थ 'प्रदेश कूल्हे आदि में अल्प चेष्टा होती है तथा दूरतर में स्थित पादादि प्रदेशों में अल्पतर चेष्टा होती है- - इस प्रकार यह अनुभवसिद्ध है । और जिस प्रकार ढेले आदि से अभिघात करने पर यद्यपि सब प्रदेशों में एक साथ वेदना उत्पन्न होती है तथापि जिन आत्मप्रदेशों में अभिघातक लोष्टादि द्रव्य की निकटता होती है वहाँ तीव्रतर वेदना होती है, शेष आत्मप्रदेशों में मन्द और मन्दतर वेदना होती है, इसी प्रकार जीवप्रदेशों में परिस्पन्दन रूप उत्पन्न १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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