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________________ .०८ ( ११६ ) निसिरिजइ नागहियं गहणंतरियं ति संतरं तेणं । न निरंतरंति न समयं न जुगवमिह होंति पजाया ॥ --विशेभा० गा ३७० टीका-नागृहीतं कदापि निसृज्यत इति नियम एषाऽयम्। 'संतरं तेणंति' तेन कारणेन निसर्जनं प्रज्ञापनायां सान्तरमुक्तम् । कुतः १ इत्याह'गहणंतरियं' ति ग्रहणान्तरितमिति कृत्वा। 'नाऽनिसृष्टं गृह्यते' इत्ययं तु नियमो नास्ति, प्रथमसमये निसर्गमन्तरेणाऽपि ग्रहणसद्भावात् ; अतः स्वतन्त्रं ग्रहणं, परतन्त्रस्तु निसर्गः, इत्ययमेव सान्तर उक्त इति भावः। तदेवं 'संतरं निसिरई' इति प्रज्ञापनायाः सूत्रावयवो विषयविभागे व्यवस्थापितः। अथ 'नो निरंतरं निसिरइ' इति तदवयवस्यैव भावार्थमाह-'न निरंतरं ती' त्यादि किमुक्तं भवति ?-न निरन्तर निसृजति, न समक, न युगपदिति पर्यायाः । ततश्च किमिह तात्पर्य मिति १ उच्यते-न ग्रहण समकालं निसृजति । किं तर्हि ? पूर्व-पूर्व गृहीतमुत्तरोत्तरसमयेषु निसृजतीति । ननु 'एगेणं समयेणं गिण्हइ, एगेणं समयेणं निसिरह' इत्येतस्य भावार्थो नाद्याप्युक्तः। सत्यम् , किन्तूक्तानुसारेण स्वयमस्वगन्तव्यः-तत्राद्य नै केन समयेन गृह णात्येष, न निसृजति, द्वितीयादिसमयादारभ्यैव निसर्गस्य प्रवृत्तः, पर्यन्तवर्तिना त्वेकेन समयेन निसृजत्येव, न तु गृह्णाति, एकेनोत्तरोत्तरसमयेन निसृजति, इत्यादि स्वधिया भावनीयम् । तदेवं समस्तमपि सूत्रव्यवस्थापितं विषये। ___'अगृहीत ( वाग्द्रव्य ) का कभी निसर्ग नहीं होता है' यह नियम ही है, इसी कारण से प्रज्ञापना में निसर्ग को सान्तर कहा गया है, क्योंकि ग्रहणान्तरित होकर अर्थात् ग्रहण के पश्चात निसर्ग होता है। 'अनिसृष्ट अर्थात बिना छोड़े हुए ( वाग्द्रव्य ) का ग्रहण नहीं होता है। ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि प्रथम समय में निसर्ग के बिना भी ग्रहण होता है। इसलिए ग्रहण स्वतन्त्र है और निसर्ग परतन्त्र है-सान्तर कहने का यही अभिप्राय है । इस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के अंश 'संतरं निसिरई' को व्यवस्थापित किया गया है। अब उसी सूत्र का अंश 'नो निरंतर निसिरइ'-निरन्तर निसर्ग नहीं होता है-इसका भावार्थ कहते हैं। न निरन्तर निसर्ग होता है, न एक काल में होता है, न एक साथ होता हैये सभी एकार्थवाची हैं। तो फिर इसका तात्पर्य क्या है ? कहा जाता है-ग्रहण के समकाल में निसर्ग नहीं होता है। तो क्या होता है ? पूर्व-पूर्व में गृहीत वाग्द्रव्य का उत्तरोत्तर समय में निसर्ग होता है । "एक समय में ग्रहण होता है तथा एक समय में निसर्ग होता है' इसका भावार्थ तो अभी तक नहीं कहा गया। यह तो ठोक है किन्तु जो कहा गया है उसके अनुसार स्वयं भी For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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