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________________ ( ६४ ) ०२०९ सावज्जं जोगं ( सावद्य योग ) - दसवे० अ जागा ४० पापयुक्त अथवा निन्दनीय मन, वचन, तथा काय का व्यापार | तदेव सावज्जं जोगं परस्सठाए निट्ठियं । कीरमाणं तिचा नश्चा सावज्जं न लवे मुणी ॥ अनिश्चितार्थं कथन अथवा स्वयं को अप्रिय लगनेवाली बात दूसरों के लिए प्रयोग करना - सावद्य ( वचन ) योग । .०२१० सावज्जं जोगं ( सावद्य योग ) - आव० अ ४ सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि (सामायिक सावद्य योग- प्रत्याख्यान ) - आव० अ ४ करेमि भंते ! लामाइयं सावज्जं ओगं पश्चक्खामि जाव नियम मुद्दत्तं - - आव० अ ४ XXXI हे भगवान् : मैं एक मुहूर्त के लिए सामायिक करता हूँ - सावद्य योग का प्रत्याख्यान करता हूँ । दो करण, तीन योग से । .०२११ सत्यमूसलाइ सावजजोग पश्च्चक्खाण प्रत्याख्यान ) एक्कारसमं पोसहोचवा सव्ययं ( शस्त्र - मूसलं X X X सावद्ययोग - आव० अ ४ सत्थमूसलाइ - सावज्जजोग पश्चक्खाणं । -आव० अ ४ ग्यारहवें पौषध व्रत में x x x शस्त्र - मूसल आदि सावद्य योग-व्यापार का प्रत्याख्यान | दो करण, तीन योग ये सावद्य योग-व्यापार न करूँगा न कराऊँगा, मन से, वचन से, काया से । Jain Education International .०२१२ सुहं जोगं ( शुभ योग ) अनारम्भ शुभ कर्म में प्रवृत्ति । xxx तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुहं जोगं पडुच्च णो आयारंभा णो परारंभा णो तदुभयारंभा अणारंभा । टीका - प्रमत्तसंयतस्य हि शुभोऽशुभश्च योगस्स्यात् संयतत्वात्, प्रमादपरत्वाच । इत्यत आह- 'सुहं जोगं पडुश्च' त्ति शुभयोग-उपयुक्ततया प्रत्युपेक्षणादिकरणम् । आत्मारम्भ, परारम्भ, उभयारम्भ रूपकर्मों में उपयोगितावश उपेक्षादि करना — -भग० श १३ १४८ शुभ योग । यह कथन प्रमत्तसंयत की अपेक्षा से है । प्रमत्तसंयत में संयम और प्रमाद रहने के कारण शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के योग होते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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