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________________ ( ५४ ) उपशान्तकषाय तथा कषायों का उपशमन करनेवाले जीवों में प्रत्यासत्ति अर्थात समीपता नहीं रहती है, जिनमें प्रत्यासत्ति नहीं रहती है उनको कहा जाता है-भिन्नयोग । ०१७१ मणजोगं ( मनोयोग) -उत्त० अ २६।सू ७३ मन के द्वारा होनेवाला योग-व्यापार । अहाउयं पालइत्ता अन्तोमुहुत्तद्धावसेसाउएजोगनिरोहं करेमाणेxxx तप्पढमाए मनजोगं निरुम्भइxxx। -भग• श १७/७३ ०१७२ मणजोगचलणा (मनयोगचलना) ०१७३ मणवयसकाइए जोगे ( मन-वचन-सकायिक योग) -ठाण. हाउसू ६६३ ०१७४ मणसमितिजोगेण (मनः समितियोग)- पण्हा अ ६।दा १।सू १८/पृ० ६८७ मन की सत्प्रवृत्ति रूप व्यापार । मूल-बितियं च-मणेण पावएणंxxx मणसमितिजोगेण भाषितो x x x अहिंसए संजए साहू। टीका-पापकेन-मनसा पापं-प्राणातिपातात्मकं किञ्चिदपि अल्पमपि न ध्यातव्यं एकाग्रतया न चिन्तनीयं । एवमनेन प्रकारेण मनःसमितियोगेन -चित्तसत्प्रवृत्तिलक्षणव्यापारेण भावितो भवति अन्तरात्मा जीवः। अन्तरात्मा को भावित करने में कारणभूत थोड़ी-सी भी मानसिक हिंसा से बचने के लिए मन को सत्प्रवृत्ति-संयम में लगाये रखना-मनःसमितियोग । ०१७५ मणोजोगनिग्गहाईओ (मनोयोगनिग्रहादि) -ध्याश० गा० ४४ मनोयोग आदि का सर्वथा रुक जाना । झाणप्पडियत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईओ। भवकाले केवलिणो सेसाण जहासमाहीए । टीका-xxx स च भवति मनोयोगनिग्रहादिः, तत्र प्रथमं मनोयोगनिग्रहः ततो पाग्योगनिग्रहः ततः काययोगनिग्रह इति, किमयं समान्येन सर्वथैवेत्थम्भूतः क्रमो ?, न, किन्तु भवकाले केवलिनः, अत्र भवकालशब्देन मोक्षगमनप्रत्यासन्नः अन्तर्मुहूर्तप्रमाण एव शैलेश्यवस्थान्तर्गतः परिगृह्यते, केवलमस्यास्तीति केवली तस्य, शुक्लध्यान एवायं क्रमःXxxi शैलेशी अवस्था को प्रतिपन्न साधक के मोक्षगमन से अन्तर्महूर्त काल पूर्व योगनिरोध होता है । इस प्रकरण में सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध होता है, अतः मनोयोग निग्रहादि शब्द प्रयुक्त किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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