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________________ ( ४६ ) ब्रह्मचर्य के साधक तप, नियम, शील और योग- शुभ प्रवृत्ति । मूल - इमं च रति-राग-दोस- मोह पवड् ढणकरं xxx अणुचरमाणेणं बंभचेरं वज्जेयब्वाइं सव्वकालं । भावेयन्धो भवइ य अंतरख्या इमेहिं तब-नियमसील - जोगेहि निश्चकालं XXX । टीका - Xx X आसेवमानेन ब्रह्मचर्यं वर्जयितव्यानि सर्वकालं अन्यथा ब्रह्मचर्यो व्याघातो भवति इति योगः, तथा भावयितव्यश्य भवति अन्तरात्मा ब्रह्मचर्यषता एवं भावनीयं मया अन्तरात्मा अनया रीत्या पालनीयः सर्वदा एभिः - बक्ष्यमाणैः तपोनियमशील योग : नित्यकालम् । ब्रह्मचर्य को अव्याहत रखने के लिए साधु के द्वारा आचरणीय तप-तपस्या, नियम - व्रत, शील-सदाचार तथा योग- -मन-वचन-काय की शुभ प्रवृत्ति-तप-नियमशील - योग । '०१४६ तब नियम- संजम - सज्झाय - झाणाबस्यमाइएसु जोगेसु ( तप-नियमसंयम-स्वाध्याय-ध्यानावश्यकादि जोग ) भग० श ०१४७ तियजोगो ( त्रिकयोगो ) तीन भावों का एक स्थान में रहना । दुगजोगो सिद्धाणं केवलिसंसारियाण तियजोगो । चउजोगजुअं चउसुबि गईसु मणुयाण पणजोगो ॥ टीका - xxx के बलिनां संसारिणां च त्रिकसंयोगः, तत्र दशसु त्रिकसंयोगेषु मध्ये केवलिनां औदयिकक्षायिकपारिणामिकभावत्रयनिष्पन्नः पञ्चमो भङ्गः संभवति, औपशमिकस्य मोहनीयाश्रितत्वेन तत्क्षयषतां केवलिनामसंभवात्, क्षायोपशमिकस्यापि इन्द्रियाद्य भाषतोऽसंभवात् 'अतीन्द्रियाः केवलिन' इति वचनात्, संसारिणां तु चतुर्गतिकजीवानामौदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावत्रयनिष्पन्नः षष्ठस्त्रिकसंयोगः संभवति x x x | केवलियों में होनेवाले औदयिक, क्षायिक और पारिणामिक भावों से निष्पन्न संयोग को त्रियोग कहते हैं । चतुर्गतिक संसारी जीवों में औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक तीन भावों से निष्पन्न संयोग को त्रिकयोग कहते हैं । ०१४८ थिर कयजोगाणं ( स्थिर - कृतयोग ) जिसके मन, वचन और काय के - प्रवसा० गा० १२६७ गये हों । Jain Education International - ध्याश० गा ३६ व्यापार स्थिर हो गये हों, अर्थात् अभ्यस्त हो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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