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________________ ( २८ ) •०७७ गतिकसायलिंगमिच्छादसणऽण्णाणऽसंजआसिद्धलेस्साओ (गतिकषाय लिंगमिथ्यादर्शनासानासंयमसिद्ध लेश्या। -सूयच. अ५ । च सू ६६ तत्थोदश्याओ गतिकसायलिंगमिच्छादसणऽण्णाणऽसंजआसिद्धलेसाओ जहासंखेण चतुचतुति पिणएक्केषकेक्केक्कछभेदा, xxx लेस्ला कण्हलेस्सादि। •०७७ गयजोगस्स ( गतियोग) -गोक गा. ५६८ योग-मन, वचन और काय के व्यापार से रहित । गयजोगस्स य बारे तदियाउगगोद इदि विहीणेसु । णामस्स य णव उदवा अट्ठव य तित्थहीणेसु ॥ बारह उदय प्रकृतियों में से वेदनीय, आयु और गोत्र-ये तीन कम कर देने पर नाम कर्म की नौ प्रकृतियों के तथा जिनमें तीर्थ कर प्रकृति नहीं होती उनमें उसको भी कम देने पर आठ प्रकृतियों के उदय योग्य स्थान-गतयोग अर्थात् अयोगिकेवली । •०७९ गुण-जोगंतरगमणेहि ( गुण-योगान्तरगमन ) -षट् खं १,६।सू १५६।१५पृ.८८ गुणान्तर और योगान्तर में गमन । मूल-सासणसम्मादिष्ट्रि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरंxxx एगजीवं पडुन णस्थि अंतरं, णिरंतरं । १५४, १५६ । टीक-कुदो ? गुण-जोगंतरगमणेहि तदसंभवा।। सयोगित्व की अपेक्षा से सासादनसम्यग्दृष्टि तथा सम्यग मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की निरन्तरता में बाधक-गुण-योगान्तरगमन । .०८० घोडणजोग (घोटमानजोग) - गोक• गा २१६ घटने-बढ़ने वाला योग-मन, वचन और काय का व्यापार । घोडणजोगोऽसण्णी णिरयदुसुरणिरयआउगजहणं । अपमत्तो आहारं अयदो तित्थं च देवचऊ ॥ असंही जीव तथा नरकद्वय, जो देवायु तथा नरकायु का प्रदेश बन्ध करते है, आहारकद्वय के अप्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती तथा असंयत गुणस्थानवी जो तीर्थ कर प्रकृति और देवचतुष्क-इन पाँच प्रकृतियों का जघन्य प्रकृतियों का बन्ध करते है ये सब घोटमान योग के द्वारा होते हैं। ०८१ घोलमाणजहण्णजोगेण (घोलमान जघन्य योग) -षट ० ५ १६।४७ ४३५ जिसका जघन्य योग घुलनशील हो रहा हो अर्थात अधोमुख हो रहा हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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