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________________ .०११ अजोगि सत्ताण ( अयोगिसत्त्व ) अयोगियों में होनेवाली सत्त्व प्रकृतियाँ | ( ɛ) अयोगिसत्त्व | .०१२ अजोगी ( अयोगी ) ओकणकरणं पुण अजोगिसत्ताण जोगियरिमोन्ति ! खीणं सुहुमंताणं खयदेसं सावलीय समयोन्ति ॥ सयोगी के अन्त समय तक अपकर्षण करण में कर्मभूत अयोगी की सत्त्व प्रकृतियाँ होती है । .०१३ अजोगी केवली ( अयोगी केवली ) - गोक० गा ४४५ जिनके मन, वचन, काय के व्यापार नष्ट हो गये हैं । जोगपच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ । अजोगीणं जीवे नवं कम्मं न बन्धह पुव्वबद्ध निज़रे | योग-प्रत्याख्यान के द्वारा अयोगत्व को प्राप्त - अयोगी । योगी जीव के नये कर्मों का बन्ध नहीं होता है तथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा - उत्त० अ २६ । सू ३८ - सम० सम १४/सू ५। पृ० ४१ मन, वचन, काय के व्यापार से रहित केवलज्ञानी । मूल - कम्मविसोहिमग्गणं पडुश्च चउदसजीबडाणा पण्णत्ता- तंजहा - मिच्छदिट्ठी xxx अजोगी केवली । टीका - अयोगी केवली - निरुद्धमनः प्रभृतियोगः शैलेशीगतो ह्रस्वपञ्चाक्षरो द्गिरणमात्रं कालं यावदिति चतुर्दशं जीवस्थानमिति । Jain Education International शैलेशी अवस्था को प्राप्त पाँच ह्रस्त्र अक्षरों के उच्चारण यावत् कालवर्ती जीव कर्म-विशोधन के द्वारा प्राप्त होनेवाला स्थान - गुणस्थान - अयोगी केवली । जीव के चौदह गुणस्थानों में यह चौदहवाँ गुणस्थान है । .०१४ अज्झप्प जोगसुद्धादाणे (अध्यात्म योगशुद्धादान ) - सू० श्रु १ अ १६ गा ३ अध्यात्म योग के द्वारा निर्मल चारित्र वाला । एत्थवि भिक्खू अणुन्नए विणीए नामए दंते दचिए बोसटुकाए संविधुft विरूवरूवे परीस होवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उषट्टिए ठिप्पा संखाए परदन्तभोई भिक्खुत्ति बच्चे । टीका - XXX अध्यात्मयोगेन - सुप्रणिहितान्तःकरणतया धर्मध्यानेन शुद्धम् - अवदातमादानं - चारित्रं यस्य स शुद्धादानो भवति । अन्तःकरण की एकाग्रता रूप धर्मध्यान के द्वारा जिस साधक का चारित्र विशुद्ध हो गया है वह - अध्यात्मयोगशुद्धादान | २ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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