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________________ प्रदेशबन्ध] ७६३, जैन-लक्षणावली [प्रदेशविरच व.बं.क.४०)। १३. योगभेदादनन्ता ये प्रदेशाः कर्म- नामकर्म जिनका कारण है, ऐसे जो अनन्तानन्त णः स्थिताः । सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु स प्रदेश इति स्थितः ।। सूक्ष्म पुद्गल योगविशेष के आश्रय से सभी भवों में (चन्द्र. च. १८-१०४)। १४. परस्परप्रदेशानु- अथवा सब ओर से प्राकर सूक्ष्म एक क्षेत्र का प्रवप्रवेशो जीव-कर्मणोः। यः संश्लेषः स निदिष्टो बन्धो गाहन करते हुए सभी प्रात्मप्रदेशों पर स्थित होते विध्वस्तबन्धनैः ॥ (ज्ञानार्णव ६-४६, पृ.१०१)। हैं, यह प्रदेशबन्ध का लक्षण है। ४ जीवप्रदेशों का १५. तेषां कर्मस्वरूपपरिणतानामनन्तानन्तानां जीव- और कर्मप्रदेशों का जो सम्बन्ध होता है उसका नाम प्रदेशः सह संश्लेषः प्रदेशबन्धः । (मला. व. ५-४७); प्रदेशबन्ध है। प्रदेशः कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कन्धानां परमाणुपरि प्रदेशबन्धस्थान-जाणि चेव जोगद्राणाणि ताणि च्छेदेनावधारणम् । (मूला. वृ. १२-३); आत्मनो चेव पदेसबंधट्टाणाणि। (षट्खं. ४, २, ४, २१३--- योगवशादष्टविधकर्महेतवोऽनन्तानन्तप्रदेशा एकैकप्र पु. १०, पृ. ५०५)। देशे ये स्थितास्ते प्रदेशबन्धा इति । (मूला. व. जो योगस्थान हैं वे ही प्रदेशबन्धस्थान कहे जाते हैं । १२-२०४)। १६. जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रतिप्रकृति प्रतिनियतपरिमाणानां प्रदेशमोक्ष-अधट्ठिदिगलणाए पदेसाणं णिज्जरा बन्धः-सम्बन्धनं प्रदेशबन्धः । (समवा. अभय. वृ. पदेसाणमण्णपयडीसु संकमो वा पदेसमोक्खो। (धव. ४; स्थाना. अभय. वृ. २९६)। १७. तस्यैव मोद पु. १६, पृ. ३३८)। अंधःस्थिति के गलन से जो कर्मप्रदेशों की निर्जरा कस्य यथा कणिकादिद्रव्याणां परिमाणवत्त्वम् एवं या उनका अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है उसे कर्मणोऽपि पुद्गलानां प्रतिनियतप्रमाणता प्रदेशबन्ध प्रदेशमोक्ष कहते हैं। इति । (स्थाना. अभय. व. २९६)। १५. ये सर्वा- त्मप्रदेशेषु सर्वतो बन्धभेदतः। प्रदेशाः कर्मणोऽनन्ताः प्रदेशवत्त्व-प्रदेशवत्त्वं तु लोकाकाशप्रदेशपरिमाणसः प्रदेशः स्मृतो बुधैः । (धर्मश. २१-११५) । प्रदेश एक आत्मा भवति। (त. भा. सिद्ध. व. १६. अशुद्धान्तस्तत्त्व-कर्मपुद्गलयोः परस्परप्रदेशानु २-८)। प्रवेशः प्रदेशबन्धः । (नि. सा. वृ. ४०)। २०. त्रया लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर प्रदेशों वाला जो णां (प्रकृति-स्थित्यनुभागानां) आधारभूताश्च एक प्रात्मा होता है, यह जीव का प्रदेशवत्त्व गुण है परमाणव: प्रदेशाः । (पंचसं. मलय. वृ. सं. क. जो साधारण है; क्योंकि वह धर्म-अधर्म द्रव्यों में ३३)। २१. xxx अणुगणना कर्मणां प्रदे भी पाया जाता है। शश्च ॥ (अन. ध. २-३६)। २२. कर्मपुद्गला- प्रदेशविपरिणामना-जं पदेसग्गं णिज्जिण्णं नामेव यद् ग्रहणं स्थिति-रसनिरपेक्षदलिकसंख्या- अण्णपयडिं वा संकामिदं सा पदेसविपरिणामणा प्राधान्येनैव करोति स प्रदेशबन्धः । उक्तं च- णाम । (धव. पु. १५, पृ. २८४) । Xxx प्रदेशो दलसञ्चयः । (कर्मवि. दे. स्वो. जो प्रदेशपिण्ड निर्जीर्ण हो चुका है या अन्य प्रकृति वृ. २, शतक. दे. स्वो. वृ. २१)। २३. कर्मत्वपरि- में संक्रमण को प्राप्त हो चुका है उसका नाम णतपुद्गलस्कन्धानां परिमाणपरिच्छेदनेन इयत्ताव- प्रदेशविपरिणामना है। धारणं प्रदेशः । (त. वृत्ति श्रुत. ८-३) । २४. x प्रदेशविरच-कर्मपुद्गलप्रदेशो विरच्यते अस्मिXx प्रदेशो देशसंश्रयः । (पञ्चाध्यायी २, निति प्रदेशविरचः, कर्मस्थितिरिति यावत् । अथवा विरच्यते इति विरचः, प्रदेशश्चासौ विरचश्च प्रदेश१ योगविशेष के द्वारा प्राकर जो सूक्ष्म अनन्त- विरचः विरच्यमानकर्मप्रदेशा इति यावत् । (धव. प्रभव्यों से अनन्तगणे व सिद्धों के अनन्तवें भाग पु. १४, पृ. ३५२)। प्रमाण-कर्मप्रदेश एक एक आत्मप्रदेश पर एक कर्मरूप पुद्गलप्रदेश की जिसमें रचना की जाती है क्षेत्रावगाह रूप से स्थित होते हैं, यह प्रवेशबन्ध उसे प्रदेशविरच कहते हैं, दूसरे शब्द से उसे कर्मकहलाता है। २ ज्ञानावरणादिरूप नाम के कारण- स्थिति कहा जाता है। अथवा रचे जाने वाले कर्म भत अथवा गति-जात्यादिभेदरूप अनेक प्रकार का प्रदेशों को ही प्रदेशविरच समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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