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________________ प्रतिसेवनानुमति] ७४६, जैन-लक्षणावली [प्रतीत्यसत्य १ जिनकी परिग्रह से आसक्ति नहीं घटी है तथा आइरिएहि कहिज्जमाणत्थाणं सुणणं पडिच्छणं जो यद्यपि मूलगुणों और उत्तरगुणों में परिपूर्ण होते णाम । (धव. पु. १४, पृ. ६)। हैं फिर भी कथंचित् उत्तरगुणों की विराधना श्रेष्ठ प्राचार्यों के द्वारा प्ररूपित किये जाने वाले करते हैं, ऐसे साधुनों को प्रतिसेवनाकुशील कहते अर्थ का निश्चय करना इसका नाम प्रतीच्छना है। हैं। २ जो मुनिधर्म के परिपालन के अभिमुख प्रतीत्यसत्य-१. अण्णं अपेक्ख सिद्धं पडुच्चसच्चं हुए हैं या उस पर आस्था रखते हैं, पर जिनको जहा हवदि दिग्धं । (मूला. ५-११४) । २. पडुइन्द्रियां नियमित नहीं है--जो इन्द्रियविषयों में च्चसच्चं नाम दिग्धं पडुच्च हृस्वं सिद्धं हृस्वं पडुच्च अनुराग रखते हैं, तथा किसी प्रकार से उत्तरगुणों दिग्धं सिद्धं-जहा कणिटुंगुलियं पडुच्च अणामिया में कुछ विराधना कर बैठते हैं, वे प्रतिसेवनाकुशील दीहा प्रणामियं पडुच्च काणंगुलिया हस्वा एवकहलाते हैं मादि । (दशवं. चू. पृ. २३६)। ३. आदिमदनाप्रतिसेवनानमति-१. कृतं पापं श्लाघयति तच्च दिमदौपशमिकादीन् भावान प्रतीत्य यद्वचनं तत्प्रसावद्यारम्भोपपन्नं द्रव्यमुपभुक्ने प्रतिसेवनानुमतिः। तीत्यसत्यम् । (त. वा. १, २०, १२, पृ. ७५) । (पंचसं. स्वो. वृ. उप. क. ३०)। २. सयं परेहि ४. साधनादीनोपशमकादीन् भावान् प्रतीत्य यद्वचनं वा कयं पावं पसंसइ सावज्जारंभनिप्फन्नं वा अस- तत्प्रतीत्यसत्यम् । (धव. पु. १, पृ. ११८ चा. सा. णादियं भुजति सो पडिसेवणा अणुमई । (कर्मप्र. पृ. २६; कातिके. टी. ३६८)। ५. प्रतीत्य वर्तते चू. उप. क. २८)। ३. तत्र यः स्वयं परैर्वा कृतं भावान् यदीपशमिकादिकान् । प्रतीत्यसत्यमित्युक्तं पापं श्लाघते, सावद्यारम्भोपपन्नं वा अशनाद्युपभुक्ते वचनं तद्यथागमम् ॥ (ह. पु. १०-१०१)। तस्य प्रतिसेवनानुमतिः । (पंचसं. मलय. बृ. उप. ६. सम्बन्ध्यन्त रापेक्षाभिधाङ्गं च वस्तुस्वरूपा. -- क. ३०)। लम्बनं दी? ह्रस्व इत्येवमादिकं प्रतीत्यसत्यम । १ किये गए पाप की प्रशंसा करना और पापयुक्त (भ. प्रा. विजयो. ११९३)। ७. कंचनार्थ प्रतीप्रारम्भ से उत्पन्न द्रव्य (भोजन प्रादि) का उप- त्यान्यस्वरूपान्तरभाषणम् । प्रतीत्यसत्यं वीरो भोग करना, इसका नाम प्रतिसेवनानुमति है। ज्ञानीत्यादि वचो यथा ॥ (प्राचा. सा. ५-३७) । प्रतिसेवा–प्रतिसेवा सचित्ताचित्त-मिश्रद्रव्याश्रय- ८. ना–पुरुषो दीर्घोऽयमित्यापेक्षिकं वचः प्रतीत्यदोषनिषेवणम् । (प्रायश्चित्तस. टी. २-३)। सत्यमित्यर्थः । प्रतीत्या सत्यं प्रतीतिविशिष्टं सत्य सचित्त, अचित्त या मिश्र द्रव्य के प्राश्रय से दोष प्रतीतिसत्यमिति वा व्याख्येयम्। (अन.ध. स्वो. के सेवन करने को प्रतिसेवा या प्रतिसेवना कहते हैं। टी. ४-४७)। ६. प्रतीत्यसत्यं सम्बन्ध्यन्तरापेक्षाप्रतिसेवित-पंचहि इंदिएहि तिसु वि कालेसु जं भिव्यंग्यवस्तुस्वरूपालम्बनं दी? हस्व इत्येवमादि । सेविदं तं पडिसेविदं णाम । (धव. पु. १३, पृ. (भ. पा. मला. ११६३)। १०. प्रतीत्य विवक्षितादि३५०)। तरदुद्दिश्य विवक्षितस्यैव स्वरूपकथनं प्रतीत्यसत्यम, तीनों ही कालों में पांचों इन्द्रियों के द्वारा जो आपेक्षिकसत्यमित्यर्थः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. सेवित हो उसे प्रतिसेवित कहते हैं। २२३) । ११. वस्त्वन्तरं प्रतीत्य स्याद्दीर्घता-हस्वप्रतीचीन (देशावकाशिकवतभेद) - तथा तादिकम् । यदेकत्र तत्प्रतीत्यसत्यमुक्तं जिनेश्वरैः ॥ प्रतीचीनं प्रतीच्यामपरस्यां दिशि (एतावन्मयाद्य (लो. प्र. ३-१३६६)। गन्तव्यमेवंभूतं प्रत्याख्यानं करोति)। (सूत्रकृ. शी. १ अन्य वस्तु की अपेक्षा करके जो वचन बोला वृ. २, ७, ७६, पृ. १८२) । जाता है उसे प्रतीत्यसत्य कहते हैं। जैसे-यह लबा पश्चिम दिशा में मैं आज इतनी दूर जाऊंगा, इस है। २ दीर्घ की अपेक्षा ह्रस्व और हस्व की प्रकार का नियम करने को प्रतीचीन देशावकाशिक- अपेक्षा दीर्घ कहना, यह प्रतीत्यसत्य माना जाता व्रत कहते हैं। है। जैसे—कनिष्ठ अंगुलि की अपेक्षा अनामिका प्रतीच्छना-पाइरियभडारएहि परूविज्जमाणत्था- को दीर्घ और अनामिका की अपेक्षा कनिष्ठ अंगलि वहारणं पडिच्छणा णाम । (धव. पु. ६, पृ. २६२); को ह्रस्व कहना, इत्यादि । ३ सादि और अनादि For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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