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________________ प्रतिष्ठा] ७४७, जैन-लक्षणावली [प्रतिष्ठापनसमिति उपमा देता हुआ जो आगम को नहीं जानता है वह १ जो देश, जाति, कुल और प्राचार से श्रेष्ठ हो; मूर्ख प्रतिषेवणादोष को करता है। उत्तम लक्षणों से संयुक्त हो, त्यागी हो, वक्ता हो, प्रतिष्ठा-१. प्रतितिष्ठन्ति विनाशेन विना अस्या- शुद्ध सम्यग्दर्शन से सहित हो, उत्तम व्रतों का अर्था इति प्रतिष्ठा । (धव. पु. १३, पृ. २४३)। पालन करने वाला हो, युवा हो; श्रावकाचार, २. श्रुतेन सम्यग्ज्ञातस्य व्ववहारप्रसिद्धये । स्थाप्यस्य ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र और पुराण का वेत्ता कृतनाम्नोऽन्तः स्फुरतो न्यासगोचरे ॥ साकारे वा हो; निश्चय व व व्यवहार का ज्ञाता हो, प्रतिष्ठानिराकारे विधिना यो विधीयते । न्यासस्तदिदमित्यु- विधि का जानने वाला हो, विनयशील हो, सुन्दर क्त्वा प्रतिष्ठा स्थापना च सा ।। (प्रतिष्ठासा. १, हो, मन्दकषायी हो, जितेन्द्रिय हो, जिनपूजा आदि ८४-८५) । में निष्ठावान् हो, तथा सम्पूर्ण अंगों वाला हो; १ जिसमें पदार्थ विनाश के विना प्रतिष्ठित रहते इत्यादि गुणों से जो विभूषित हो वह प्रतिष्ठाचार्य या हैं, अर्थात् जिस संस्कार के प्राश्रय से पदार्थों का याजक (यज्ञ कराने वाला) होता है। वह ब्रह्मस्मरण बना रहता है, उसे प्रतिष्ठा कहते हैं। यह चारी अथवा गृहस्थ भी हो सकता है। विशेष धारणाज्ञान का नामान्तर है। २ श्रुत के द्वारा इतना है कि वह शूद्र नहीं होना चाहिए। समीचीन रूप से जाने गये स्थाप्य की स्थापना प्रतिष्ठापक-आत्मसम्पत्तिद्रव्येण व्ययं कृत्वा के विषयभूत वृषभादि तीर्थंकर की-जो विधि- महोत्सूकः । यः करोति प्रतिष्ठां च स प्रतिष्ठापको पूर्वक साकार अथवा निराकार पाषाण आदि में मतः ।। (प्रतिष्ठापाठ जय. ७४) ।। स्थापना की जाती है उसका नाम प्रतिष्ठा है। अपनी सम्पत्ति को खर्च करके जो अतिशय उत्सुकदूसरे नाम से उसे स्थापना और न्यास भी कहा तापूर्वक प्रतिष्ठा को करता है उसे प्रतिष्ठापक जाता है। कहा जाता है। प्रतिष्ठाचार्य-१. देश-जाति-कुलाचारः श्रेष्ठो प्रतिष्ठापनशुद्धि-प्रतिष्ठापनशुद्धिपरः संयतः दक्षः सुलक्षणः । त्यागी वाग्मी शुचिः शुद्धसम्यक्त्व: नख-रोम-सिंघाणक-निष्ठीवन-शुक्रोच्चार-प्रस्रवणशोसवतो युवा ॥ श्रावकाध्ययनज्योतिर्वास्तुशास्त्र- धने देहपरित्यागे च विदितदेश-कालो जन्तुपरोधमन्तपुराणवित् । निश्चय-व्यवहारज्ञः प्रतिष्ठाविधिवित् रेण प्रयतते (च. सा. '-ण यत्नं कुर्यात् प्रयतते')। (त. प्रभुः ॥ विनीतः सुभगो मन्दकषायो विजितेन्द्रियः । वा. ६, ६, १६; चा. सा. पृ. ३६) । जिनेज्या दिक्रियानिष्ठो भूरिसत्त्वार्थबान्धवः ॥ दृष्ट- जो नख, रोम, नाक का मल, थूक, वीर्य और मलसृष्टक्रियो वार्तः सम्पूर्णाङ्गः परार्थकृत् । वर्णी गृही वा मूत्र की शुद्धि में तथा शरीर के परित्याग में देशसवृत्ति रशूद्रो याजको धुराट् ॥ (प्रतिष्ठासा. १, काल को जानता हुआ जीवों को पीड़ा न पहुंचा कर १११-१४)। २. स्याद्वादधुर्योऽक्षरदोषवेत्ता निरा- प्रयत्न करता है वह प्रतिष्ठापनशुद्धि में लसो रोगविहीनदेहः । प्रायः प्रकर्ता दम-दानशीलो रहता है। जितेन्द्रियो देव-गुरुप्रमाणः ॥ शास्त्रार्थसंपत्तिविदीर्ण- प्रतिष्ठापनसमिति-देखो उच्चारप्रस्रवणसमिति वादो धर्मोपदेशप्रणय: क्षमावान् । राजादिमान्यो व उत्सर्गसमिति । १. पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए नययोगभाजी तपोयतानुष्ठितपूतदेहः ॥ पूर्व निमि- परोपरोहेण । उच्चारादिच्चागो पइट्ठासमिदी हवे त्ताद्यनुमापकोऽर्थसन्देहहारी यजनकचित्तः । सद्- तस्स ॥ (नि. सा. ३-६५) । २. ब्राह्मणो ब्रह्मविदां पटिष्ठो जिनकधर्मा गुरुदत्तमंत्रः॥ ते दूरे गूढे बिसालमविरोहे । उच्चारादिच्चामो भुक्त्वा हविष्यान्नमरात्रिभोजी निद्रां विजेतुं विहि- पदिठावणिया हवे समिदी ॥ (मूला. १-१५) । तोद्यमश्च । गतस्पृहो भक्तिपरात्मदुःखप्रहाणये सिद्ध- ३. एदेण चेव पद्रिावणसमिदी वि वणिया होदि । मनुविधिज्ञः ॥ कुलक्रमायातसुविद्यया यः प्राप्तोपसर्ग वोसरणिज्जं दव्वं थंडिल्ले वोसरितस्स ॥ (भ. प्रा. परिहर्तुमीशः । सोऽयं प्रतिष्ठाविधिषु प्रयोक्ता श्ला- ११६६)। ४. शरीरान्तर्मलत्याग: प्रगतासुसुभूध्योऽन्यथा दोषवती प्रतिष्ठा ॥ (प्रतिष्ठापाठ जय. मिषु । यत्तत्समितिरेषा तु प्रतिष्ठापनिका मता ॥ ८१-८५)। (ह. पु. २-१२६) । ५. उच्चार-प्रश्रवण-खेल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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