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________________ सम्पादकीय प्रस्तुत जैन लक्षणावली का दूसरा भाग लगभग ५ वर्ष पूर्व (१९७३) में प्रकाशित हुआ था । अब उसका यह अन्तिम तीसरा भाग कुछ विलम्ब से जिज्ञासु पाठकों के हाथों में पहुंच रहा है। इतना लम्बा समय लग जाने का कारण यह है कि सितम्बर १९७४ में मैं अस्वस्थ हो गया था। दिल्ली में अकेले रहते हुए स्वास्थ्यसुधार की प्राशा कुछ कम रह गई थी। इससे मुझे दिल्ली छोड़कर घर चला जाना पड़ा। इधर प्रस्तुत लक्षणावली के शेष कार्य के कराने की कोई अन्य व्यवस्था नहीं हो सकी। इसके लिए मुझे प्रेरणा की गई । इस सम्बन्ध में मुझे जो स्व. साहू शान्तिप्रसाद जी जैन (अध्यक्ष वीर सेवा मन्दिर) का दि. १८-११-७४ का पत्र मिला, उससे मुझे यह निश्चय करना पड़ा कि स्वास्थ्य के कुछ ठीक होते ही मुझे दिल्ली पहुंच कर जिस किसी भी प्रकार से उसके शेष कार्य को पूरा अवश्य करा देना है। तदनुसार स्वास्थ्य के कुछ ठीक हो जाने पर मैं दि. १३ नवम्बर १९७५ को पुनः दिल्ली पहुंचा और लगभग १० मास वहां रहकर उसके शेष कार्य को सम्पन्न करते हुए उसकी पाण्डलिपि तयार करा दी। मद्रण कार्य में विलम्ब होते देख मैं पुन: घर वापिस चला आया। मुद्रण कार्य के चालू हो जाने पर उसके दूसरे प्रूफों को मैं यहां मंगाकर देखता रहा तथा प्रथम और अन्तिम प्रफों को वहीं देखकर श्री ५. पद्मचन्द्रजी शास्त्री मुद्रण का कार्य सुचारु रूप से कराते रहे। इस प्रकार से उसके इस अन्तिम भाग का कार्य सम्पन्न हो सका। इस समय मुझे उन स्व. साहू शान्तिप्रसाद जी का विशेष स्मरण हो रहा है, जिनकी सद्भावनापूर्ण प्रेरणा से मैं इस कार्य को सम्पन्न करा सका। दुःख इस बात का है कि जिनका इस कार्य के कराने में इतना महत्त्वपूर्ण योगदान रहा वे साहू जी इसे सम्पन्न होता न देख सके और बीच में ही कालकवलित हो गये। जैसी कि प्रथम भाग की प्रस्तावना में (पृ. ६६) सूचना की गई थी, इस भाग की प्रस्तावना में शेष ग्रन्थों का परिचय कराना अभीष्ट था, पर स्वास्थ्य की शिथिलता और यहां (हैदराबाद) उन ग्रन्थों की अनुपलभ्यता के कारण उनका परिचय नहीं कराया जा सका। __इस भाग में नयविवरण, रयणसार और वसुदेवहिंडी जैसे २-४ ग्रन्थों को छोड़कर अन्य नये ग्रन्थों का उपयोग नहीं हुआ है। इसी से इस भाग के अन्त में प्रथम और द्वितीय भाग के समान ग्रन्थ और ग्रन्थकारों की अनुक्रमणिका नहीं दी गई है। प्राभार इस भाग के सम्पादन कार्य में श्री पन्नालाल जी अग्रवाल और पं. परमानन्द जी शास्त्री का सहयोग पूर्ववत् रहा है। बीच में परिस्थिति वश कार्य के कुछ रुक जाने पर उसे पूरा करा देने के सम्बन्ध में अग्रवाल जी के तो मुझे कई प्रेरणात्मक पत्र भी मिले हैं । स्व. साहू शान्तिप्रसाद जी की सद्भावनापूर्ण प्रेरणा के अतिरिक्त वीर सेवा मन्दिर के उपाध्यक्ष ला. इन्द्रसेन जी, महासचिव श्री महेन्द्रसेन जी और साहित्यसचिव श्री गोकुलप्रसाद जी एम्. ए., साहित्यरत्न की अत्यधिक प्रेरणा से जो मुझे बल मिला उसके आश्रय से ही मेरे द्वारा यह रुका हुआ कार्य सम्पन्न हो सका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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