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________________ प्रतिपत्ति ७४१, जैन-लक्षणावली [प्रतिपद्यमान लाने वाली तूंबी को–अलावु, सुम्भकको–उत्तम क्रमेण संख्यातसहस्रपदमात्रसंघातेषु संख्यातसहस्रेषु वर्ण करने वाले को–कुसुम्भक, तथा बालपन्-बहुत रूपोनेषु संघातसमासविकल्पेषु गतेषु तच्चरसमस्य बोलने वाले को-विपरीत भाषण या व्यर्थ भाषण संघातसमासोत्कृष्टविकल्पस्य XXX एतस्योकरने के कारण प्रभाषक; इत्यादि नाम विपक्ष- परि एकस्मिन्नक्षरे वद्ध सति प्रतिपत्तिकनामश्रुतज्ञावाची पदों से सिद्ध होने के कारण प्रतिपक्षपद कह- नं मवति । (गो. जी. म. प्र. टी. ३३८)। लाते हैं। २ कुमारी और बन्ध्या इत्यादि नामों को १ जितने पदों के द्वारा एक गति, इन्द्रिय, काय प्रतिपक्षपद कहा जाता है। कारण यह कि प्रादानपदों और योग आदिकों की प्ररूपणा को जाती है उनका में-वधु व अन्तर्वत्नी आदि में--जहां गहीत द्रव्य नाम प्रतिपत्ति है। संघातसमास श्रुतज्ञान के ऊपर (पति व गर्भस्थ वच्चा आदि) कारण हैं वहां इन एक अक्षर की वृद्धि के होने पर प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान (कुमारी व बन्ध्या प्रादि) प्रतिपक्षपदों में उनका होता है। ऐसा होते हुए संख्यात संघातश्रुतज्ञानों (पति व गर्मस्थ बालक का) अभाव कारण है। को लेकर एक प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान होता है। ३ गति आदि द्वारों में से किसी एक परिपूर्ण गत्यादि द्वार प्रतिपत्ति -- १. श्रवणेन्द्रियावधानेनोपदेशग्रहणं में जीवादि के अन्वेषणको प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान कहा प्रतिपत्तिः । (त. भा. सिद्ध. ७-६, पृ. ५६)। २. प्रतिपत्तिरुपचारो हितप्रकारशिक्षण-यथावसरान्न जाता है। पानादिप्रदानरूपः । (श्राद्धगु. १६, पृ. ४५)। ३. प्रति प्रतिपत्तिसमासश्रुतज्ञान-१. पडिवत्तिसुदणाण __ स्सुवरि एगक्खरे वढिदे पडिवत्तिसमाससुदणाणं पत्ति:-मीमांसोत्तरकालभाविनी निश्चयाकारा परि होदि । एवमेगेगक्खरवडिढकमेण पडिवत्तिसमाससदच्छित्तिरिदमित्थमेवेति तत्त्वविषयैव । (षोडश. वृ. णाणं वडढमाणं गच्छदि जाव एगक्खरेणणप्रणियोग. १६-१४)। दारसुदणाणेत्ति । (धव. पु. १३, पृ. २६६) । १ कान लगाकर सावधानी से उपदेश के ग्रहण २. द्वारद्वयादिमार्गणासु प्रतिपत्तिसमासः । (शतक. करने को प्रतिपत्ति कहते हैं। २ हितरूप शिक्षा मल. हेम. वृ. ३८-९, पृ. ४३, कर्मवि. दे. स्वो. देना और यथावसर अन्न-पानादि प्रदान करना, वृ. ७)। इसे प्रतिपत्ति कहा जाता है। ३ किसी पदार्थ की १ प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि मीमांसा के पश्चात होने वाले 'यह ऐसा ही है इस होने पर प्रतिपत्तिसमासश्रतज्ञान होता है। इस प्रकार के निश्चयात्मक बोध का नाम प्रतिपत्ति है। प्रकार एक-एक अक्षर की वृद्धि के क्रम से यह प्रतिप्रतिपत्तिश्रुतज्ञान-१. जत्तिएहि पदेहि एयगइ- पत्तिसमासश्रुतज्ञान बढ़ता हुआ एक अक्षर से हीन इंदिय-काय-जोगादो परूविज्जति तेसिं पडिवत्ती- अनियोगश्रुतज्ञान तक जाता हैं। २ दो द्वार आदि सण्णा । (धव. पु. ६, पृ. २४); पुणो एत्थ (संघा- मार्गणाविषयक ज्ञान को प्रतिपतिसमासश्रुतज्ञान दसमाससुदणाणे) एगक्खरे वढिदे पडिवत्तिसुदणाणं होदि । होतं पि संखेज्जाणि संघादसदणाणाणि प्रतिपत्तिसमासावरणीयकर्म-पडिवत्तिसमासघेत्तूण एवं पडिवत्तिसुदणाणं होदि। (धव. पु. १३, सुदणाणस्स जमावारयं कम्मं तं पडिवत्तिसमासावरपृ. २६६)। २. एक्कदरगदिणिरूवयसंघादसुदादु णीयं कम्म । (धव. पु. १३, पृ. २७८) । उवरि पुव्वं वा। वण्णे संखेज्जे संघादे उडढम्हि जो प्रतिपत्तिसमासश्रुतज्ञान को आच्छादित करता पडिवत्ती।। चउगइसरूवरूवयपडिवत्तीदोxxx। है उसे प्रतिपत्तिसमासावरणीय कर्म कहते हैं। (गो. जी. ३३८-३६)। ३. गत्यादिद्वाराणामन्यत- प्रतिपत्त्यावरणीयकर्म-पडिवत्तिसुदणाणस्स जरैकपरिपूर्णगत्यादिद्वारे (कर्म वि. 'द्वारेण') जीवादि- मावारयं कम्मं तं पडिवत्तिावरणीयं कम । (धव. मार्गणा प्रतिपत्तिः । (शतक. मल. हेम. बृ. ३८, ६, पु. १३, पृ. २७८)। पृ. ४३; कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ७) । ४. पूवोक्त- जो प्रतिपत्तिश्रुतज्ञान को आच्छादित करता है उसे प्रमाणस्य एकतमगतिनिरूपकं संघातश्रुतस्योपरि प्रतिपत्यावरणीयकर्म कहते हैं। पूर्वोक्तप्रकारेण एकैकवर्णवृद्धिसहचरितैकैकपदवृद्धि- प्रतिपद्यमान-प्रतिपद्यमाना अभिधीयन्ते ते ये For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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