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________________ होता है। K - प्रज्ञापारमित] ७३६, जैन-लक्षणाली [प्रतनुकर्मा अभिमान को उत्पन्न न होने देना, इसका नाम है। इस ऋद्धि से युक्त साधु अध्ययन के विना भी प्रज्ञापरीषहजय है। ३ जो ज्ञान का अभिलाषी चौदह पूर्वगत विषय की सूक्ष्मता को लिए हुए होकर भी उसके प्राप्त न होने पर मोह को प्राप्त सभी श्रुत को जानता है । ३ अदृष्ट एवं प्रश्रुत हीता हुआ खिन्न नहीं होता, किन्तु कर्म का दोष अर्थविषयक ज्ञान उत्पन्न कराने की योग्यतारूप समझता है। ऐसा साधु प्रज्ञापरीषहविजयी बुद्धि हो जिनके श्रवण (कान) होते हैं वे प्रज्ञाश्रवण कहलाते हैं। प्रज्ञापारमित-ते खलु प्रज्ञापारमिताः पुरुषा ये प्रणिधान-१. प्रणिधानं विशिष्टश्चेतोधर्मः । कुर्वन्ति परेषां प्रतिबोधनम् । (नीतिवा. १७-६६)। (दशवै. नि. हरि. वृ. १-२३, पृ. २४) । २. प्रणिदूसरों को प्रतिबोधित करने वाले पुरुषों को प्रज्ञा- धानं चेतःस्वास्थ्यम् । (व्यव. भा. मलय. वृ. (पी.) पारमित कहते हैं। १-६५, पृ. २८)। प्रज्ञाभाषच्छेदना-मदि-सुद-प्रोहि-मणपज्जय-केव- १ चित्त के विशिष्ट-एकाग्रतारूप-धर्म को लणाणेहि छदृव्वावगमो पण्णभावच्छेदणा णाम । प्रणिधान कहा जाता है। (घव. पु. १४, पृ. ४३६)। प्रणिधानयोग-प्रणिधानं चेतःस्वास्थ्यम्, तत्प्रमति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान के धानयोगाः प्रणिधानयोगाः। (व्यव. भा. मलय. वृ. द्वारा छह द्रव्यों को जानना; इसका नाम प्रज्ञा (पी.) १-६५, पृ. २८) । भावछेदना है। यह दस प्रकार की छेदना में। चित्त को स्वस्थता युक्त योग प्रणिधानयोग कहअन्तिम है। लाते हैं। प्रज्ञावशार्तमरण-तीक्ष्णा मम बुद्धिः सर्वत्राप्रति प्रणिधि-प्रणिधिः व्रतापरिणतावासक्तिः प्रणिधाहता इति प्रज्ञामत्तस्य मरणं प्रज्ञावशार्तमरणमुच्यते। नम् । (त. भा. सिद्ध. व. ८-१०, पृ. १४६)। (भ. प्रा. विजयो. २५)। व्रतों की अपरिणति में-उनके पालन न करने की मेरी बुद्धि तीक्ष्ण है, उसकी गति सर्वत्र अप्रतिहत पोर-जो आसक्ति या अरुचि होती है, उसका (निर्बाध) है, इस प्रकार से प्रज्ञामद से मत्त पुरुष नाम प्रणिधि है। यह माया कषाय का नामान्तर के मरण को प्रज्ञावशार्तमरण कहते हैं। प्रज्ञाश्रवण-देखो प्राज्ञश्रमण । १.पगडीए सुद प्रणिधिमाया-प्रतिरूपद्रव्यमानकरणानि ऊनातिणाणावरणाए वीरियंतरायाए । उक्कस्सक्खनोवसमे रिक्तमानं संयोजनया द्रव्यविनाशनमिति प्रणिधिउप्पज्जइ पण्णसमणद्धी ।। पण्णासमणद्धिजुदो चोद्द माया। (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ.६०)। सपुव्वीसु विसयसुहमत्तं । सब्वं हि सुदं जाणदि अक बहुमूल्य द्रव्य में तत्सम अल्प मल्य के द्रव्य को अज्झयणो वि णियमेण ॥ भासंति तस्स बुद्धी पण्णासमणद्धि सा च चउभेदा। (ति. प. ४, १०१७ से मिलाना, तौलने व नापने के उपकरणों (बांटों) को १०१६)। २. अतिसूक्ष्मार्थतत्त्वविचारगहने चतु हीनाधिक रखना, तथा संयोग के द्वारा वस्तु को नष्ट करना; यह प्रणिधिमाया कहलाती है। यह शपूर्विण एव विषयेऽनुपयुक्ते (चा. सा. '—क्ते माया के पांच भेदों में एक है। वृष्टे') अनधीतद्वादशांग-चतुर्दशपूर्वस्य प्रकृष्टश्रुतावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतासाधारणप्रज्ञाशक्ति- प्रणिपातमुद्रा- जानु-हस्तोत्तमाङ्गादिसंप्रणिपातेन लाभान्निःसंशयं निरूपणं प्रज्ञाश्रवणत्वम् । (त. प्रणिपातमुद्रा। (निर्वाणक. पृ. ३३) । वा. ३, ३६, ३, पृ. २०२, पं. २२-२४; चा. सा. जानु (घुटने), हाथ और मस्तक के झुकाने को पृ. ६६) । ३. प्रज्ञा एव श्रवणं येषां ते प्रज्ञाश्रवणाः। प्रणिपातमुद्रा कहते हैं। xxx अदिट्ठ-अस्सुदेसु अढेसु णाणुप्पायणजो- प्रतनुकर्मा-प्रकर्षेण तनु प्रकृति-स्थिति-प्रदेशानुग्गत्तं पण्णा णाम । (धव. पु. ६, पृ. ८३)। भावरल्पीयः कर्म यस्यासौ प्रतनुकर्मा लघुकर्मा । १ श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म का उत्कृष्ट (बृहत्क. क्षे. वृ. ७१४) ।। क्षयोपशम होने पर प्रज्ञाश्रवण ऋद्धि उत्पन्न होती जिसके प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग स्वरूप . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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