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________________ जैन-लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्द-कोष) प्रकरणसमा जाति-१. अथानित्येन नित्येन सा- प्रकाशन, प्रकाशना-१. पगासणा चरमाहारधादुभयेन वा। प्रक्रियायाः प्रसिद्धिः स्यात्ततः प्रकाशनम् । (भ. प्रा. विजयो. ६६)। २. पयासणाप्रकरणे समा ॥ तत्रानित्येन साधर्म्याग्निःप्रयत्नो- चरणं आहारप्रकटनम् । (भ. प्रा. मूला. ६६)। द्भवत्वतः । शब्दस्यानित्यतां कश्चित् साधयेदपरः ३. प्रकाशनं चरमाहारप्रकटनम् । (अन. ध. स्वो. पुनः ॥ तस्य नित्येन गोत्वादिसामान्येन हि नित्यता। टी. ७-६८)। ततः पक्षे विपक्षे च समाना प्रक्रिया स्थिता ॥ (त. १ अन्तिम आहार के प्रगट करने को प्रकाशन या श्लो. १, ३३, ३८०-८२)। २. तस्य (प्रकरण- प्रकाशना कहा जाता है। यह भक्तप्रत्याख्यानमरण समस्य) हि लक्षणम्-यस्मात् प्रकरणचिन्ता स के अर्हादिभावों के अन्तर्गत है। प्रकरणसमः [न्यायसू. ११२।७] इति । प्रक्रियेते प्रकीर्णक-१.प्रकीर्णकाः पौर-जानपदकल्पाः । (स. साध्यत्वेनाधिक्रियेते अनिश्चितौ पक्ष-प्रतिपक्षौ यौ तौ सि. ४-४) । २. प्रकीर्णकाः पौर-जनपदस्थानीयाः । प्रकरणम्, तस्य चिन्ता संशयात् प्रभृत्याऽऽनिश्चयात् (त. भा. ४-४)। ३. प्रकीर्णकाः पौर-ज[जानपदपर्यालोचना यतो भवति स एव, तन्निश्चयार्थ प्रयुक्तः कल्पाः। यथेह राज्ञां पौरा जानपदाश्च प्रीतिहेतवः प्रकरणसमः, पक्षद्वयेऽप्यस्य समानत्वादुभयत्राप्यन्व- तथा तन्द्राणां प्रकीर्णकाः प्रत्येतव्याः । (त. वा. यादिसद्मावात् । (प्र. क. मा. ३-१५, पृ. ३५७)। ४,४,८)। ४. पौर-जानपदप्रख्या: सुरा ज्ञेयाः १ अनित्य की नित्य से और नित्य से अनित्य की प्रकीर्णकाः । (म. पु. २२-२६)। ५. प्रकीर्णा एव समानता से जो प्रकरणसिद्धि की जाती है, इसे प्रकीर्णकाः, ते पौर-जानपदकल्पा: । (त. श्लो. ४, प्रकरणसमा जाति जानना चाहिए। जैसे कोई एक ४)। ६. समुद्र इव प्रकीर्णक-सूक्त-रत्नविन्यासवादी जब 'प्रयत्न के अविनाभावित्व' हेतु के द्वारा निबन्धनं प्रकीर्णकम् । (नीतिवा. ३२-१, पृ. शब्द की अनित्यता को सिद्ध करना चाहता है तब ३७६) । ७. xxx प्रकीर्णा ग्राम्य-पौरवत् । दूसरा प्रतिवादी गोत्व आदि सामान्य के साथ (त्रि. श. पु. च. २, ३, ७७४)। ८. तथा प्रकीर्णसाधर्म्य होने से उसकी नित्यता के सिद्ध करने का काः पौर-जनपदस्थानीयाः, प्रकृतिसदृशा इत्यर्थः । प्रयत्न करता है । इस प्रकार पक्ष-विपक्ष में प्रक्रिया (बृहत्सं. मलय. वृ. २)। ६. प्रकीर्णकाः पौर-जनके समान होने से इसे प्रकरणसमा जाति कहा पदादिप्रकृतिसदृशाः । (संग्रहणी. दे. व. १-२, पृ. जाता है। ५)। १०. प्रकीर्णकाः पौर-जनपदसमानाः । (त. प्रकाश-प्रकाशयति घनतिमिरपटलावगुण्ठितमपि वृत्ति श्रुत. ४-४)। घटादि प्रकटयतीति प्रकाशः । (उत्तरा. नि. शा. १ देवों में जो पुरवासी और जनपद निवासी मनुष्यों वृ. २०६, पृ. २१२)। के समान हुआ करते हैं वे प्रकीर्ण या प्रकीर्णक देव जो सघन अन्धकार से प्राच्छादित भी घटादि कहलाते हैं। ६ जिस प्रकार समुद्र बिखरे हुए रत्नों पदार्थों को प्रकट करता है उसे प्रकाश कहते हैं। का कारण है उसी प्रकार जो काव्य विविध प्रकार ल. ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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