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________________ हीलितदोष] १२१७, जैन-लक्षणावली [हेतुविचय होलितदोष-१. वचनेनाचार्यादीनां परिभवं दुरवबोष भी अर्थ का दूसरे के हृदय में प्रवेश करा कृत्वा यः करोति वन्दनां तस्य हीलितदोषः। देना, इसका नाम हृदयनाहित्व है। यह ३५ वच(मूला. वृ. ७-१०८) । २. हीलितं हे गणिन् नातिशयों में १३वां है । वाचक किं भवता बन्दितेनेत्यादिना अवजानतो -१. साध्यार्थासम्भवाभावनियमनिश्चयंकवन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। ३.X लक्षणो हेतुः।(प्रमाणसं. स्वो. विव. २१)। २. अन्यxx अन्येषामुपहासादि हेलितम् । (अन. प. थानुपपन्नत्वं हेतोरेकलक्षणम् । (सिद्धिवि. ५-२३, ८-१०६)। पृ. ३६१)। ३. हेतुः साध्याविनाभावि लिङ्गम्, १ जो वचन द्वारा प्राचार्य प्रादि का तिरस्कार अन्यथानुपपत्येकलक्षणोपलक्षितः। (घव. पु. १३, करके वन्दना करता है उसके होलित नाम का पृ. २८७)। ४. साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो वन्दनादोष होता है। इसे हेलित दोष भी कहा हेतुः । (परीक्षा. ३-१०)। ५. अन्यथानुपपत्तिजाता है। २ हे गणिन् वाचक, प्रापको वन्दना से निर्णीतो हेतुः । (सिद्धिवि. वृ. ६-३२, पृ. ४३०)। क्या लाभ है ? इस प्रकार से अपमान करते हुए ६. साध्ये सत्येव भवति साध्याभावे च न भवत्येवं वन्दना करना, यह एक होलित नाम का वन्दना, साध्यधर्मान्वय-व्यतिरेकलक्षणो हेतुः। (प्राव. नि. दोष है। - मलय. ७.८६, पृ. १०१)। ७. साध्याविनाभाविहण्डकसंस्थान-१. सर्वाङ्गोपाङ्गानां हुण्डसंस्थित- साधनवचनं हेतुः । यथा-धूमवत्त्वान्यथानुपपत्ते त्वात् हुण्डसंस्थाननाम । (त. वा. ८, ११, ८)। इति, तथैव धूमवत्त्वोपपत्तः इति वा। (न्यायदो. २. विसमपासाणभरियदइग्रो व्व विस्सदो विसमं प.७६)। हुंडं, हुंडस्स सरीरं हुंडसरीरं, तस्स संठाणमिव १ साध्य अर्थ की प्रसम्भावना में जिसके प्रभाव के संठाणं जस्स तं हुंडशरीरसंठाणं णाम । जस्स नियम का निश्चय होता है वह हेतु कहलाता है। कम्मस्सुदएण पुबुत्तपंचसंठाणेहितो वदिरित्त. ६ जो साध्य के रहते हुए ही होता है और उसके मण्णसंठाण मुप्पज्जइ एक्कत्तीसभेदभिण्णं तं हुंड- प्रभाव में नहीं होता है, इस प्रकार जिसका साध्य संठाणसण्णिदं होदि त्ति णादव। (धव. पु.६, प. के साथ प्रन्वय-व्यतिरेक रहता है उसे हेतु कहा ७२); विषमपाषाणभूत दृतिवत् समन्ततो विषमं जाता है। हुण्डम्, हुण्डं च तत् शरीरसंस्थानं हुण्डशरीरसंस्था- हेतुवाद-हिनोति गमयति परिच्छिनत्त्यर्थमात्मानं नम् । एतस्य कारणकर्मणोऽप्येषेव संज्ञा । (धव. पु. चेति प्रमाणपञ्चकं वा हेतुः, स उच्यते कथ्यते १३, पृ. ३६९) । ३. हुंडसंस्थानं सर्वशरीरावयवानां अनेनेति हेतुवादः श्रुतज्ञानम् । (धव. पु. १३, पृ. बीभत्सता परमाणूनां न्यूनाधिकता सर्वलक्षणासंपूर्णता २८७)। च। (मूला. वृ. १२-४६)। ४. यत्र तु सर्वेऽप्यवय- जो अर्थ और प्रात्मा का ज्ञान कराता है उसे हेतु वाः प्रमाणलक्षणपरिभ्रष्टास्तद् हुण्डसंस्थानम् । कहा जाता है, अथवा प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणों को (प्रज्ञाप. मलय. वु. २६८, पृ. ४१२) । ५. अव- हेतु समझना चाहिए। इस हेतु का जिसके द्वारा च्छिन्नावयवं हुण्डसंस्थानं नाम । (त. वृत्ति श्रुत. निरूपण किया जाता है उसका नाम हेतुवाद है ८-११)। जो श्रुतज्ञान स्वरूप है। १ जिसके उदय से शरीर के सब अंग-उपांग हेतुविचय--१. तर्कानुसारिणः पुंसः स्याद्वादप्रविरूप (बेडौल) प्राकार में अवस्थित होते हैं उसे क्रियाश्रयात् । सन्मार्गश्रयणध्यानं यद्धेतुविचयं तु हुण्डसंस्थान नामकर्म कहते हैं। ४ जहां शरीर के तत् ॥ (ह. पु. ५६-५०) । २. हेतुविचयसब ही अवयव प्रमाण लक्षण से रहित होते हैं उसे मागमविप्रतिपत्तो नय (कार्ति. 'नगमादिनय') हुण्डसंस्थान कहते हैं। विशेषगुण-प्रधानभावोपनयदुर्धर्षस्याद्वादप्रति (कार्ति. हृदयग्राहित्व-हृदयग्राहित्वं दुर्गमस्याप्यर्थस्य पर. 'स्याद्वादशक्तिप्रति') क्रियाऽवलम्बिनस्तर्कानुसारिहृदयप्रवेशकरणम् । (रायप. मलय. व. पू. १६)। रुचेः पुरुषस्य स्वसमयगुण-परसमयदोषविशेषपरि ल. १५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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