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________________ जेन लक्षणावलो अपवर्तन के योग्य नहीं होती है उन्हें निरुपक्रम निर्दिष्ट किया गया है। इसी भाष्य की सिद्धसेन विरचित वृत्ति (२-५१) में प्रत्यासन्नीकरण के कारण को उपक्रम कहा गया है। इसे स्पष्ट करते हुए वहां यह कहा गया है कि जिस अध्यवसान आदि रूप कारणविशेष से अतिशय दीर्घकाल की स्थिति वाली भी आयु अल्प काल की स्थिति से युक्त हो जाती है उस कारणकलाप का नाम उपक्रम है । आगे ( २-५२ ) यहां उदाहरण के रूप में विष, अग्नि और शस्त्र आदि को उपक्रम बतलाते हुए कहा गया है कि देव व नारक श्रादि के चूंकि श्रायु के भेदक प्राणापान निरोध, आहारनिरोध, श्रध्यवसान, निमित्त, वेदना, पराघात और स्पर्श नामक सात वेदनाविशेष रूप उपक्रम सम्भव नहीं है, इसलिये वे निरुपक्रम ही होते हैं । ४२ धबला (पु. १०, पृ. २३३ - ३४ ) में सोपक्रमायुष्क और निरूपक्रमायुष्क इनके लक्षण का तो कुछ निर्देश नहीं किया गया, पर वे पर भव सम्बन्धी प्रायु को किस प्रकार से बांधते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए वहां कहा गया है कि जो जीव सोपक्रमायुष्क होते है वे अपनी भुज्यमान श्रायु के दो त्रिभागों (२/३) के बीत जाने पर संक्षेपाद्धा काल तक पर भव सम्बन्धी आयु के बांधने के योग्य होते हैं, अर्थात् दो त्रिभागों के बीत जाने पर प्रथमादि आठ अपकर्षकालों में से यथासम्भव किसी एक अपकर्षकाल में उसे बांधा जा सकता है । पर उक्त ग्राठ अपकर्षकालों में से यदि वह किसी में भी न बंध सकी तो फिर श्रावली के प्रसंख्यातवें भाग मात्र अक्षपाद्धा काल में वे अवश्य ही पर भव सम्बन्धी आयु को बांध लेते हैं । इनसे विपरीत जो निरुपक्रमायुष्क होते हैं वे अपनी भुज्यमान ग्रायु में छह मास शेष रह जाने पर पर भव सम्बन्धी आयु के बांध योग्य होते हैं । इसमें भी अपकर्षों का नियम पूर्ववत् रहता है । आगे यहां (पृ. २३७-३८) शंकाकार के द्वारा इस प्रसंग से सम्बद्ध व्याख्याप्रज्ञप्ति के सन्दर्भ को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि उपर्युक्त कथन का इस व्याख्याप्रज्ञप्तिगत सूत्र के साथ कैसे विरोध न होगा ? इसका समाधान यहां प्राचार्यों के मध्यगत मतभेद को प्रगट करते हुए किया गया है । धबला के प्रकृत भाग का हिन्दी अनुवाद करते समय हमने वर्तमान में उपलब्ध व्याख्याप्रज्ञप्ति में उस सूत्र के खोजने का यथासम्भव प्रयत्न किया था, पर वह उस रूप में हमें वहां उपलब्ध नहीं हुआ । स्तनदोष या स्तनदृष्टिदोष - यह कायोत्सर्ग का एक दोष है। मूलाचार की वृत्ति (७-१७१) में इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो कायोत्सर्ग में स्थित होकर अपने स्तनों पर दृष्टि रखता है उसके यह कायोत्सर्ग का स्तनदृष्टि नामक दोष होता है। योगशास्त्र के स्वो विवरण में (३, १३०) कहा गया है कि डांस-मच्छर प्रादि के निवारण के लिए अथवा प्रज्ञानता से स्तनों को चोलपट्ट से बांधकर कायोत्सर्ग में स्थित होना, यह एक कायोत्सर्ग के स्तनदोष का लक्षण है । श्रागे यहां इस सम्बन्ध में मतभेद को दिखलाते हुए यह भी कहा गया है कि अथवा जिस प्रकार धाय स्तनों को ऊपर उठाकर बालक के लिए दिखलाती है उसी प्रकार स्तनों को ऊंचा करके कायोत्सर्ग में स्थित होना, यह उस स्तनदोष का लक्षण है, ऐसा किन्हीं अन्य आचार्यों का अभिमत है । सम्भव है यह लक्षणभेद साम्प्रदायिकता के व्यामोहवश हुआ हो । स्त्रीवेद - इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए सर्वार्थसिद्धि ( ८-९ ) में कहा गया है कि जिसके उदय से जीव स्त्री जैसे भावों को प्राप्त होता है वह स्त्रीवेद कहलाता । इसे कुछ और स्पष्ट करते हुए त. वार्तिक (८, ६-४ ) में कहा गया है कि जिसके उदय से जीव मृदुता, अस्पष्टता, क्लीवता ( कायरता ), कामावेश; नेत्रविभ्रम, ग्रास्फालनसुख और पुरुषेच्छा, इन स्त्री जैसे भावों को प्राप्त होता है उसे स्त्रीवेद कहा जाता है । पश्चात्कालीन प्रायः सभी ग्रन्थों में- जैसे श्रावकप्रज्ञप्ति टीका (१८), धवला (पु. १, पृ. ३४०, ३४१; पु. ६, पृ. ४७; पु, ७, पृ. ७६ और पु. १३, पृ. ३६१), मूलाचारवृत्ति ( १२-१६२ ) और प्रज्ञापना मलय. वृत्ति ( २९३ ) आदि - यही कहा गया है कि जिसके उदय से स्त्री के पुरुषविषयक अभिलाषा होती है उसका नाम स्त्रीवेद है । लगभग इसी पद्धति में नपुंसकवेद और पुरुषवेद या पुंवेद का भी लक्षण देखा जाता है । विशेषता यह है कि त. वा. में जैसे स्त्रीवेद के लक्षण में स्त्रण भावों को स्पष्ट किया गया है वैसे वहां नपुंसक और पौन भावों को कुछ स्पष्ट नहीं किया गया (देखिए नपुंसक और पुरुषवेद व पुंवेद शब्द ) | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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