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________________ स्वस्थितिक रण] १२०६, जैन-लक्षणावली [स्वातिसंस्थाननाम श्रेण्य भिमुखो वा चाटेतुं न वर्तते तावत् स खलु स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया-स्वहस्तेन स्वप्राणान् स्वस्थानाप्रमत्तः । (गो. जी. जी. प्र. ४६) । निर्वेदादिना, पर प्राणान व! क्रोधादिना अतिपातयतः १ समस्त प्रमादों से रहित तथा व्रत, गण एवं शील स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया । (स्थानां. अजय. व. ६०, से सुशोभित सम्यग्ज्ञानी अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती पृ ४१) । जीव जब तक उपशम अथवा क्षपक श्रेणि पर निवेद आदि के द्वारा अपने हाथ से अपने प्राणों को पारूढ नहीं होता तब तक ध्यान में निमग्न वह अथवा क्रोध प्रादि के द्वारा दूसरे के प्राणों के नष्ट स्वस्थान-अप्रमत्त कहलाता है। करने को स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया कहते हैं। स्वस्थितिकरण - तत्र मोहोदयोद्रेकाच्च्युतस्यात्म- स्वाङ्गुल-देखो प्रात्मागुल । स्वे स्वे काले मनुस्थिते श्चित: । भूय: संस्थापनं स्वस्य स्थितीकरण- व्याणामडगुलं स्वागुल मतम् । मीयते तेन मात्मनि ।। (लाटीसं. ४-२६७; पंचाध्या. ७६३)। तच्छत्र-भङ्गार-नगरादिकम । (ह.प्र. ७-४४)। मोह के तीव्र उदय के वश प्रात्मस्थिति से ---- रत्न- अपने अपने समय में मनुष्य का जो अंगुल होता है त्रयस्वरूप मोक्षमार्ग से - भ्रष्ट जीव जो अपने को उसे स्वाङगल या प्राम्माङगल कहा जाता है। पुनः उस प्रात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित करता है, इसे इससे छत्र, झारी व नगर प्रादि का प्रमाण किया स्वस्थितिकरण कहते हैं । यह सम्यग्दर्शन के अंगभूत जाता है। स्थितिकरण के दो भेदों में पहला है। स्वातिसंस्थाननाम- १. तद्विपरीत (न्याम्रोधपरिस्वहस्तक्रिया...' . या परेण निवां क्रियां स्वयं मण्डलसंस्थाननामविपरीत) सन्निदेशकर स्वातिकरोति सा स्वहस्तक्रिया। (स. सि. ६-५; त. वा. सस्थान नाम बल्भीकतुल्याकारम् । (त. वा ८, ११, ६, ५, १०)। २. परेणेव तु निर्वा या स्वयं )। २. स्वातिवल्मीकः शाल्मलिर्वा, स्य संस्थाक्रियते क्रिया। सा स्वहस्तत्रिया बोध्या पूर्वोक्तास्रव. नमिव संस्थान यस्य शरीरस्य तत्स्वातिशरीरसंस्थावधिनी ।। (ह. पु.५८-७४ । ३. परनिवार्यकार्यस्य नम्, अहो विसालं उरि रणमिदि ज उत्तं होदि। स्वयं करणमत्र यत् । सा स्वहस्तक्रियाऽवद्यप्रधाना (घव. पु. ६, पृ. ७१); स्वातिल्मिीकः, स्वातिधीमतां मता ।। (त. इलो ६, ५, १७)। ४. स्व-रिव शरीर संस्थान स्वातिशरीरसंस्थानम् । एतस्य हस्तक्रिया अभिमानारूषितचेतसाऽन्यपुरुषप्रयत्न- यत कारण कर्म तस्याप्येव संज्ञा, कारणे कार्योपनिर्वत्या या स्वहस्तेन क्रियते । (त. भा. सिद्ध. वृ. चारात । (धव. पु. १३, पृ. ३६८) । ३. स्वाति६-६) । ५. कर्मकरादिकरणीयाया: क्रियायाः संस्थानं शरीरस्य नाभेरधः कटि जंघा-पादाद्यवयवस्वयमेव करणं स्वकरणक्रिया। (त. वृत्ति श्रुत. परमाणनामधिकोपचयः । (मला. वृ. १२-४६) । ४. तस्मात् (न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानात) विपरीत१ जो क्रिया दूसरों से कराने योग्य है उसे स्वयं सस्थान विधायक स्वाति संस्थानं वल्मीकापरनामकरना, इसे स्वहस्तक्रिया कहते हैं। ४ अभिमान यम । (त. वत्ति श्रत. ८-११)। अथवा क्रोध के वश होकर अन्य पुरुष के प्रयत्न से १ न्याग्रोधपरिमण्डल संस्थान से विपरीत जो शरीर को जाने वाली क्रिया को जब अपने हाथ से किया के अवयवों की रचना होती है उसे स्वातिसंस्थान जाता है तब उसे स्वहस्तक्रिया कहा जाता है। कहते हैं। यह शरीरावयवों की रचना वल्मीक के स्वहस्तपारितापनिकी -स्वहस्तेन स्वदेहस्य पर- प्राकार जैसी होती है। इस प्रकार की शरीराकृति देहस्य वा परितापनं कुर्वतः स्वहस्तपरितापनिकी। जिस कर्म के उदय से होती है उसे स्वातिसंस्थान(स्थानां. अभय. ६०, पृ. ४१)। नामकर्म कहा जाता है। ३ शरीर में नाभि के अपने हाथ से अपने ही शरीर को अथवा अन्य के नीचे कटि, जंघा और पांव मादि अवयवों में जो शरीर को सन्तप्त करना, इसे स्वहस्तपरितापनिको परमाणुओं का अधिक उपचय होता है उसे स्वातिक्रिया कहा जाता है। संस्थान कहते हैं। ल. १५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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