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________________ स्वयंबुद्धसिद्ध) १२०७, जैन-लक्षणावली [स्वलक्षण समीचीन बोध से जो स्वयं ही प्रबद्ध हए हैं उन्हें फल का वर्णन करने वाला है उसे स्वर कहा जाता स्वयंवुद्ध कहा जाता है। है। यह २९वें पापश्रुत के अन्तर्गत है। स्वयंबुद्धसिद्ध -स्वयं बुद्धा सन्तो ये सिद्धाः ते स्वरनिमित्त - १. णर-तिरियाण विचित्तं सई स्वयंबोधसिद्धाः, स्वयं बुद्धा हि बाह्यप्रत्ययमन्तरेण सोदुण दुक्ख-सोक्वाइं । कालत्तयणिप्पण्णं जं जाणइ बुध्यन्ते, उपधिस्तु स्वयंबुद्धानां पात्रादिदिशधा, तं सरणिमित्तं ।। (ति. प १००८) । २. अक्षरास्वयंबुद्धानां पूर्वाधीतश्रुतेऽनियमः, लिङ्गप्रतिपत्तिस्तु नक्षरशुभाशुभशब्दश्रवणेनेष्टानिष्टफलाविर्भावनं मस्वयंबद्धानां गुरुसन्निधावपि भवति । (योगशा. स्वो. हानिमित्तं स्वरम् । (त. वा. ३, ३६, ३)। विव. ३-१२४)। ३. खर-पिंगलोलव-वायस-सिव-सियाल-णर-णारीजो स्वयं ही प्रबुद्ध होकर सिद्धि को प्राप्त हुए हैं दे सरं सोऊण लाहालाह-सुह-दुक व-जीविद-मरणादीणं स्वयंबद्धसिद्ध कहलाते हैं। ये बाह्य कारण के बिना अवषमो स रमहाणिमित्तं णाम । (धव. पु. १, पृ. ही बोधि को प्राप्त होते हैं। ७२) । ४. नर नारी-खर-पिंगलोलक कपि-वायसस्वयंबुद्धसिद्ध केवलज्ञान--स्वयंबुद्धाः सन्तो ये शिवा-शृगालादीनामक्षराऽनक्षरात्मकशुभाशुभशब्दसिद्धास्तेषां केवलज्ञानं स्वयंबुद्धसिद्ध केवलज्ञानम् । · श्रवणे नेष्टानिष्टफलाविर्भावक: स्वरः। (चा. सा. xxx स्वयंबुद्धा बाह्य प्रयत्नमन्तरेणैव बुध्यन्ते, पृ. ६४) । ५. यं स्वरं शब्दविशेष श्रुत्वा पुरुषस्यास्वयमेव-बाह्यप्रयत्नमन्तरेणव निजजातिस्मरणा- न्यस्य वा शुभाशुभं ज्ञायते तत्स्वरनिमित्तम् । (मूला. दिना बद्धाः स्वयंबद्धाः । (प्राव. नि. मलय. व.७८) वृ. ६-३०)। जो अपने जातिस्मरण आदि के द्वारा स्वयं प्रबुद्ध १ मनुष्य व तियंचों के विचित्र शब्दों को सुनकर होकर सिद्धि को प्राप्त हुए हैं उनके केवलज्ञान को तीनों कालों से सम्बन्धित दुख सुख को मान लेना, स्वयंबुद्धसिद्ध केवलज्ञान कहा जाता है। इसे स्वरनिमित्त कहा जाता है। स्वयंभू-१. स्वयमेव भूतवानिति स्वयम्भूः । (धव. स्वरमहानिमित्त-देखो स्वरनिमित्त । पु. १, पृ. ११६-२०; पु. ६. ". २२१) । २. सह स्वरूपासिद्धहेत्वाभास-स्वरूपाभावनिश्चये स्वज्ञानत्रयेणात्र तृतीय भवभाविना। स्वयं भूतो यतो. रूपासिद्धः । xxx यथा परिणामी शब्दः, चाक्षुऽतस्त्वं स्वयंभूरिति भाष्यसे ।। (ह. पु. ८-२०७)। षत्वात् । (न्यायदी. पृ. १००) । ३. स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमवबद्धयान- जिस हेतु के स्वरूप का प्रभाव निश्चित है उसे ष्ठाय चानन्तचतुष्टयरूपतया भवतीति स्वयंभः। स्वरूपासिद्धहेत्वाभास कहा जाता है। जैसे- शब्द (अन. घ. स्वो. टी. ८-३६) । ४. स स्वयम्भूः परिणामी है, क्योंकि वह चक्षु इन्द्रिय का विषय स्वयं भूतं संज्ञानं यस्य केवलम् । विश्वस्य ग्राहक है। यहाँ शब्द में चाक्षुषत्व का अभाव निश्चित है, नित्यं युगपद् दर्शन तदा ॥ (प्राप्तस्व. २२)। क्योंकि वह चक्षु का विषय न होकर श्रोत्र का ५. सयं भवणसीलो सयंभु । (अंगप. २,८६.८७)। विषय है। इसीलिए यह स्वरूपासिद्ध है। १ जो अन्य की अपेक्षा न करके स्वयं विशिष्ट स्वलक्षण--१. स्वलक्षणमसंकीर्णं समान सविकल्पज्ञानादि को प्राप्त होता है उसे स्वयंभ कहा जाता कम् । समर्थं स्वगुणरेक सह-क्रमवितिभिः ।। है। यह जीव के कर्ता-भोक्ता प्रादि अनेक पर्याय (न्यायवि. १-१२२); अन्वयोऽन्यव्यवच्छेदो व्यतिनामों के अन्तर्गत है। २ भगवान आदिनाथ ने अपने रेकः स्वलक्षणम् । (न्यायवि. १२६) । २. स्वं स्वपूर्व तृतीय भव में तीन ज्ञानों को प्राप्त कर लिया रूप लक्षणं यस्य तत् स्वलक्षणम् । (न्यायवि. वि. था, उन्हीं तीन ज्ञानों के साथ वे यहां स्वयं हुए थे, १-१२२) । इसी से इन्द्र के द्वारा प्रार्थना में उन्हें स्वयंभ कहा १जो संकर से रहित, समान, विकल्पसहित, समर्थ गया है। और सहवर्ती व क्रमवर्ती अपने गुणों से -- गुणस्वर-स्वरं जीवाजीवादिकाश्रितस्वस्वरूपफला- पर्यायोंसे--एक होता है वह स्वलक्षण कहलाता है। भिधायकम् । (समवा. अभय. व. २६)। २ अपनास्वरूप ही जिसका लक्षण है उसे स्वलक्षण जो जीव-अजीव प्रादि के प्राधित अपने स्वरूप व कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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