SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 532
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्नेह-दोष] ११६६ जैन-लक्षणावली [स्पर्श (एक विशेष अनुयोगद्वार) स्नेहदोष-उड्ढे सग्रंकवड्ढयबाले अज्जाउ तह उन्.) । ५. वर्गणाससूहलक्षणानि स्पचकानि प्रणाहायो। पासंतस्स सिणेहो हवेज्ज अचंतिय. xxx अथवा कर्मशक्तेः क्रमेण विशेषवृद्धिः विनोगे ॥ (भ. प्रा. ३६३) । - स्पर्द्धकलक्षणम् । (समयप्रा. जय. वृ. ५२) । वृद्ध यतियों, अपनी गोद में वषित बाल पतियों ६. कर्म पुद्गलशक्तीनां क्रमवृद्धः क्रमहानिश्च स्पर्धक और प्रनाथ प्रायिकानों को देखने वाले समाधिस्थ तावदुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-२२)। प्राचार्य के प्रात्यन्तिक वियोग में स्नेह हो सकता है, १ श्रेणि के प्रसंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात वर्गयह अपने गण में रहने पर दोष होगा। इस विचार गाओं को लेकर एक स्पर्धक होता है। से समाधिमरण से उद्यत प्राचार्य अपने गण से चले स्पर्धक (अवधिज्ञानविशेष)-स्पर्द्धकं च नामाजाते हैं। वधिज्ञानप्रभ या गवाक्षजालादिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्र. स्नेहप्रत्ययस्पर्धक-१. हणिमित्तं फड़गं णाम भाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः । तथा चाह एगेगरूवेणं वड़ढिताणं वग्गणाणं स यो।xx जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण: स्वोपज्ञटीकायाम-स्पर्द्धकXअविभागाणं वग्गणाणं अणंताणतसमुदाप्रो फड्डगं। मवधिविच्छेदविशेष इति । (प्रज्ञाप. मलय. व. (कर्मप्र चू. ब. क. २२)। २. स्नेहप्रत्ययं स्नेह- ३१७)। निमित्तम् एकैकस्नेहाविभागवृद्धानां पुद्गलवर्गणानां जिस प्रकार झरोखे प्रादि के द्वार में से निकलती समुदायरूपं स्पर्धक स्नेहप्रत्ययस्पर्धकम् । तच्चैकमेव हुई दीपक की प्रभा के प्रतिनियतविच्छेद (अविभागभवति । (कर्मप्र. मलय.व. बं. क. २२)। प्रतिच्छेद) होते हैं उसी प्रकार अवधिज्ञान की प्रभा २ स्नेहा (चिक्कणता)निमित्तक एक-एक स्नेहविभाग के जो प्रतिनियत विच्छेदविशेष होते हैं उनके से वृद्धिंगत पुदगल वर्गणानों के समूह को स्नेहप्रत्यय. समुक्ति रूप का नाम स्पर्षक है। इसका सम्बन्ध स्पर्धक कहा जाता है। स्पर्धक रूप से उत्पन्न होने वाले अन्तगत प्रवधिस्नेहराग-स्नेहरागस्तु विषयादिनिमित्तविकलो शान से है। ऽविनीतेष्वप्यपत्यादिषु यो भवति। (प्राव. नि. हरि. स्पर्शन (इन्द्रिय)-~१. पात्मना स्पृश्यतेऽनेनेति वृ. ६१८, पृ. ३८८) । स्पर्शनम्, स्पृशतीति स्पर्शनम् । (स. सि. २-१६) । विषयादि के निमित्त विकल होता हुमा जो विनय २. वीर्यान्तराय-प्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमांगोसे रहित भी पुत्रादिकों में राग होता है उसे स्नेह- पांगनामलाभावष्टम्भात् स्पर्शत्यनेनात्मेति स्पर्शराग कहा जाता है। यह प्रशस्त नोमागमभाव- नम्। (त. वा. २, १६, १)। ३. वीर्यान्तरायराग के तीन भेदों में तीसरा है। स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टस्पर्धक-१. फयपरूवणाए असंखेज्जायो वग्ग- म्भावस्पृशत्यनेनेति स्पर्शनम । (षक णामो सेढीए असंखेज्जदिभागमेतीयो तमेगं फट्टयं २३७); वीर्यान्तराय-स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमे होदि । (षट्वं. ४, २, ४, १८२ - धव. प १०, सति शेषेन्द्रियसर्वघातिस्पर्घकोदये चैकेन्द्रियजातिपृ. ४५२)। २. अविभागपरिच्छिन्नकर्मप्रवेशरस- नामकर्मोदयवशत्तितायां च सत्यां स्पर्शन मिन्द्रियभागप्रचयपंक्तेः क्रमवृद्धिः क्रमहानिः स्पर्धकम् । (त. माविर्भवति । (घव. पु. १, पृ. २४०)। ४. वीर्यावा. २, ५, ४; त. श्लो. २-५)। ३. क्रमवृद्धिः न्तराय-मतिज्ञानावरणक्षयोपमांगोपांगनामलाभावष्टक्रमहानिश्च यत्र विद्यते तत्स्पर्धकम् । (धव. पु. १०, म्भबलादास्मना स्पृश्यतेऽनेनेति स्पर्शनम् । (मूला. पृ. ४५२); एगवग्गोलीए दवट्ठियणयावलम्बणेण वृ. १-१५)। संगतोखित्तासेसवग्गाए कमवढि-कमहाणीहि ट्ठिद- २ बीर्यान्तराय पोर प्रतिनियत इन्द्रियावरण के सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तवग्गणाहि एगं फद्दयं क्षयोपशम तथा प्रांगोपांग नामकर्म के लाभ के होदि। (धव. पु. १०, पृ. ४५३-५४); क्रमेण प्राश्रय से जिसके द्वारा स्पर्श किया जाता है उसे स्पर्धते वर्धत इति स्पर्धकम् । (धव. पु. १२. पृ. स्पर्शन इन्द्रिय कहते हैं। ६५) । ४. वर्गणानां समूहस्तु स्पर्धकं स्पर्धकापहैः। स्पर्शन (एक विशेष अनुयोगद्वार)-१. तदेव (पंचसं, ममित. १-४५; समयप्रा. जय. वृ. ५२ स्पर्शनं त्रिकालगोचरम् । (स. सि. १-८)। २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy