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________________ प्रस्तावना ३६ सामायिक प्रतिमा- इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए रत्नकरण्डक ( ५-१६) में कहा गया है कि जो श्रावक तीन-तीन प्रावर्तो को मन, वचन व काय के संयमनरूप तीन-तीन शुभ योगरूप प्रवृत्तियों को-चार बार करता है, चार प्रणाम करता है, यथाजात रूप से - दिगम्बर होकर अथवा समस्त परिग्रह की ओर से निर्ममत्व होकर - कायोत्सर्ग में स्थित होता है व दो उपवेशन करता है; इस प्रकार की क्रिया को करता हुग्रा तीनों सन्ध्याकालों में तीनों योगों से शुद्ध होकर वन्दना किया करता है वह सामयिक - तीसरी सामायिक प्रतिमा का अनुष्ठाता - होता है । षट्खण्डागम (५,४,४--- पु. १३, पृ. ३८) में निर्दिष्ट दस कर्मभेदों में हवां क्रियाकर्म है। इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए वहां प्रात्माधीन, प्रदक्षिण, त्रिः कृत्वा ( तीन बार करना ), तीन श्रवनमन, चार शिर और बारह आवर्त इस सबको क्रियाकर्म ( कृतिकर्म ) कहा गया है ( ५,४, २७-२८ -- पु. १३, पु. ८८) पूर्वोक्त रत्नकरण्डक में जो बारह श्रावर्त (४-३) और चार प्रणामों का उल्लेख किया गया है सम्भव है वह इस षट्खण्डागम के ही आधार से किया गया हो। दोनों ही ग्रन्थों में 'आवर्त' शब्द तो समान रूप से व्यवहृत हु पर षट्खण्डागम में जहां 'चतुः शिरस्' का उपयोग किया गया है वहां रत्नकण्डक में 'चतुः प्रणाम' का उपयोग किया गया है । वीरसेनाचार्य विरचित इस षट्खण्डागमसूत्र की टीका (पु. १३, पृ. ९१ व २) में 'चतुः शिर' का स्पष्टीकरण करते हुए यह कहा गया है कि समस्त क्रियाकर्म चतुः शिर होता है । वह इस प्रकार से -- सामायिक के आदि में जो जिनेन्द्र के प्रति शिर नमाया जाता है वह एक शिर है, उसी के अन्त में जो शिर नमाया जाता है वह दूसरा शिर है, 'थोस्सामि' दण्डक के आदि में जो शिर नमाया जाता है. वह तीसरा शिर है तथा उसीके अन्त में जो नमन किया जाता है वह चौथा शिर है। इस प्रकार एक क्रियाकर्म चार शिर से युक्त होता है । यहीं पर आगे प्रकारान्तर से उस चतुः शिर' को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अथवा सब ही क्रियाकर्म चतुः शिर - चतुः प्रधान (चार की प्रधानता से ) होता है, क्योंकि अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म को ही प्रधानभूत करके सब क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति देखी जाती है । बारह प्रावर्तो को स्पष्ट करते हुए यहां यह कहा गया है कि सामायिक और थोस्सामि दण्डक के आदि और अन्त में मन, वचन व काय की विशुद्धि के परावर्तन के बार (श्रावर्त) बारह (३+३+३+३) होते हैं । मूलाचार के अन्तर्गत षडावश्यक अधिकार में बन्दना का विवेचन करते हुए नामवन्दना के प्रसंग में कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म इनको वन्दना का समानार्थक कहा गया है। इस प्रसंग में वहां ये प्रश्न उठाये गये हैं- वह कृतिकर्म किसके द्वारा किया जाना चाहिए, किसके प्रति किया जाना चाहिए किस प्रकार से किया जाना चाहिए, कहां किया जाना चाहिए, कितने बार किया जाना जाहिए, कितने उसमें अवनत – हाथ जोड़कर शिर से भूमिका स्पर्श करते हुए नमस्कार -- किये जाने चाहिये, कितने शिर - हाथ जोड़कर शिर को नमाते हुए नमस्कार किये जाने चाहिये; तथा वह कितने ग्रावर्त्तो से शुद्ध और कितने दोषों से रहित होना चाहिए (७, ७८-८० ) । इन प्रश्नों का वहाँ यथाक्रम से समाधान करते हुए वह कितने अवनत, कितने प्रावर्त और कितने शिर से युक्त होना चाहिए; इन प्रश्नों के समाधान में वहां यह कहा गया है - उस कृतिकर्म का प्रयोग दो प्रवनतों से सहित, यथाजात रूप से संयुक्त, बारह श्रावतों से युक्त, चार शिर से सहित और मन, वचन और काय रूप तीनों योगों से शुद्ध किया जाना चाहिए (७-१०४) यह मूलाचार का विवरण निश्चित ही पूर्वोक्त षट्खण्डागम से प्रभावित रहा प्रतीत होता है । विशेष इतना है कि षट्खण्डागम में जहां तीन 'अवनत' का निर्देश किया गया है वहां मूलचार में 'दो अवनत' का निर्देश किया गया है। पूर्वोक्त रत्नकरण्डक का वह अभिप्राय मूलाचार के इस कथन से प्रत्यधिक प्रभावित रहा प्रतीत होता है । दोनों ग्रन्थों में बारह (४ x ३) प्रावर्त, चार प्रणाम ( शिर), यथाजात, दो निषद्य ( प्रवनत) और त्रियोगशुद्ध ( त्रिशुद्ध) इनका समान रूप में व्यवहार हुआ है । यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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